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दिव्यसंग सिद्धान्तचक्रवर्ती मूलगन्थकार हैं और तृतीय नेमिचन्द्र टीकाकार हैं। प्रथम नेमिचन्द्र का समय वि. की 11वीं (ई. स. 11) शताब्दी है और तृतीय का ई. सन् की 16वीं शताब्दी। अत: इन दोनों नेमिचन्द्रों के पौर्वापर्यय में 500 वर्षों का अन्तराल है। इसी प्रकार प्रथम और द्वितीय नेमिचन्द्र भी एक नहीं हैं। प्रथम नेमिचन्द्र वि. की 11वीं शताब्दी में हुए हैं तो द्वितीय उन से 100 वर्ष बाद वि. की 12वीं शताब्दी में, क्योंकि द्वितीय नेमिचन्द्र वसुनन्दि सिद्धान्तिदेव के गुरु थे और वसुनन्दि का समय वि. सं. 1750 के लगभग है। इन दोनों नेमिचन्द्रों की उपाधियाँ भी भिन्न हैं। प्रथम की उपाधि सिद्धान्तचक्रवर्ती है, तो द्वितीय की सिद्धान्तिदेव।
प्रथम और चतुर्थ नेमिचन्द्र भी भित्र हैं। प्रथम अपने को सिद्धान्तचक्रवर्ती कहते हैं, तो चतुर्थ अपने को 'तनुसूत्रधर'। बृहद्रव्यसंग्रह के संस्कृत टीकाकार ब्रह्मदेव ने द्रव्यसंग्रहकार को सिद्धान्तिदेव लिखा है, सिद्धान्तचक्रवर्ती नहीं। अतएव हमारी दृष्टि में द्रव्यसंग्रह के रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव हैं। पण्डित आशाधर जी ने वसुनन्दि सिद्धान्तिदेव का सागारधर्मामृत और अनगारधर्मामृत दोनों ही टीकाओं में उल्लेख किया है और वसुनन्दि ने इन सिद्धान्तिदेव का अपने गुरु के रूप में स्मरण किया है तथा इन्हें श्रीनन्दि का प्रशिष्य एवं नयनन्दि का शिष्य बतलाया है। ये नयनन्दि यदि 'सुदंसणचरिउ' के रचयिता हैं, जिसकी रचना उन्होंने भोजदेव के राज्यकाल में वि. सं. 1100 में की थी, तो नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव नयनन्दि से कुछ ही उत्तरवर्ती और वसुनन्दि से कुछ पूर्ववर्ती, अर्थात् वि. सं. 1125 के लगभग के विद्वान सिद्ध होते हैं। पंडित आशाधर जी ने द्रव्यसंग्रहकार नेमिचन्द्र का उल्लेख किया है। अतएव वसनन्दि सिद्धान्तिदेव के गुरु द्रव्यसंग्रह के रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव ही होंगे।