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दिव्वसंगठ
टीका : झेओ इत्यध्याहार्य सो उवज्झाओ अप्पा स उपाध्यायः स्वात्मा ध्येयः, किं विशिष्टः ? जदिवरवसहो यतिवरवृषभः प्रधानः, णमो तस्स नमस्कारोऽस्तु तस्मै, सः कः ? जो रयणत्तयजुत्तो यो रत्नत्रययुक्तः, पुनः किं विशिष्ट ? णिच्वं धम्मोवएसणे णिरदो नित्यं धर्मोपदेशने निरतः ।
उत्थापिका : अब उपाय श्रेय है, ऐसा कहते हैं --
गाधार्थ : [ रयणत्तयजुत्तो ] रत्नत्रय से संयुक्त [ जो ] जो [ अप्पा ] आत्मा [ णिच्चं ] हमेशा [ धम्मोवएसणे ] धर्मोपदेश देने में [ णिरदो ] निरत हैं । [ जदिवरवसहो ] यतियों में प्रधान [ सो ] वह [ उवज्झाओ ] उपाध्याय परमेष्ठी हैं । [ तस्स ] उस को [ णमो ] नमस्कार हो ।। 53 ॥
टीकार्थं : झेओ [ ऐसा अध्याहार कर लेना चाहिये] सो उवज्झाओ अप्पा वह उपाध्याय स्वात्मा का ध्येय हैं। वे कैसे हैं? जदिवरवसहो यतियों में वृषभ यानि प्रधान हैं, णमो तस्स उन को मैं नमस्कार करता हूँ। वे कौन हैं ? जो रयणत्तयजुत्तो जो रत्नत्रय से युक्त हैं, और कैसे हैं? णिच्चं धम्मो सो णिरदो हमेशा धर्म का उपदेश करने में रत हैं।
भावार्थ: जो अंगप्रविष्ठ एवं अंगबाह्य रूप श्रुतज्ञान का निरन्तर पठन करते हैं व भव्य जीवों को पाठन कराते हैं, वे रत्नत्रय से संयुक्त, मुनियों में प्रधान ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी हैं। भव्य जीवों के लिए वे उपाध्याय परमेष्ठी ध्यान का ध्येय हैं || 53 |
पाठभेद : धम्मोचएसणे
=
भ्रम्मोवदेसणे
|| 53 ||
उत्थानिका : साधुय इत्याह
गाथा : दंसणणाणसमग्गं मग्गं मोक्खस्स जो हु चारितं । साधयदि णिच्च सुद्धं साहू समुणी णमो तस्स ॥ 54 ॥
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