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तुमने बहुत दुःख पाये, बहुत संक्लेश सहे (८८); तू विषयों की चाहरूपी राह को छोड़ (१०६); इनके साथ रहने से अपने सभी गुण छिप जाते हैं (१२३) । ____मोह-कषाय की घातकता को समझाते हुए गुरु कहते हैं - हे प्राणी ! मोह तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रु है, यह सुखकारी नहीं हो सकता (२९); तुम इनसे नेह तोड़ो (३५); मोह के, राग आदि के बन्धन बहुत दु:ख देते हैं (३४); तू मोहवश चारों गतियों में भ्रमण कर रहा हैं (१००); तू मोहरूपी मदिरा को पीकर अपने आपको भूल गया है (९३), (९५), (१०४); इस मोहरूपी ठग ने इन्द्रजाल की भाँति विभ्रम का जाल चारों ओर फैला रखा है और यह जीव उसमें भटक रहा है (९१), (८०); तुमने पर में ही रुचि लगाई हुई हैं, अपने स्वरूप को नहीं पहचान रहा (८३); तू राग-द्वेषरूपी मैल के द्वारा अपनी आत्मा की निर्मलता की हानि कर रहा है (७७)।
देह की पृथकता - देह-प्रेम की निरर्थकता बताते हुए गुरु कहते हैं - हे जीव! ये देह दुःखों का घर है और विपत्ति की निशानी है (९५); यह मलीन है अत: अत्यन्त घिनौनी है, इससे अधिक प्रीत मत करो (८९); तू देह को अपना जान रहा है पर ये तुझसे भिन्न है (८३), (१२४); ये देह मल की थैली है, पराई है, अस्थायी है फिर क्यों तू इसके पोषण में ही लगा रहता है (९७), (११९); यह देह जड़ है और तू चेतन है, दोनों का स्वरूप बिल्कुल भिन्न है फिर इन दोनों का मेल कैसे संभव है? इनकी प्रीत कैसे निभेगी (७८), (९७), (१००), (१०२), (१२०); ये देह तुमसे भिन्न है (९८); तू देहरूप नहीं है (१२०); तुम इससे प्रीति स्थापित कर दिन-रात पाप का संचय करते रहते हो, समझो, पर-पदार्थ कभी भी अपना नहीं होता (७९), (९९); जैसे पानी और तेल का मेल नहीं होता उसी भाँति इस शरीर व आत्मा का भी मेल नहीं है (७९): ये तन का संयोग स्वप्नवत् है, इसके विलय होने में देर नहीं लगती (१००), (१०१): तू देहाश्रित क्रियाएँ करके अपने को मोक्षमार्ग का राही मानता रहा है (१०५); कहने को तो कहते रहे कि ये देह चेतन से भिना है पर आचरण से देह से ही ममत्व करते रहे हैं (१११); हे जीव ! यह देह तेरे अहित की जड़ है, एक जेल के समान है, इस देह से नेह ही संसार का हेतु हैं (११९); समझ, चन्द्रमा की ज्योति/चाँदनी जिस भूमि पर पड़ रही है वह भूमि चाँद की नहीं हो जाती उसी प्रकार ये देह आत्मा की नहीं है (७७)।
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