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(१४) मैं हरख्यौ निरख्यौ मुख तेरो। नासान्यस्त नयन भ्रू हलय न, वयन निवारन मोह अंधेरो॥ मैं॥ परमें कर मैं निजबुधि अब लों, भवसरमें दुख सह्या धनेरो। सो दुख भानन स्वपर पिछानन, तुमविन आन न कारन हेरो॥१॥ चाह भई शिवराहलाहकी, गयौ उछाह असंजमकेरो। 'दौलत' हितविराग चित आन्यौ, जान्यौ रूप ज्ञानदृग मेरो॥२॥
मैं आपके दर्शन करके हर्षित हुआ। आपकी नासाग्र दृष्टि, स्थिर भौहें और आपके वचन मेरे मोहरूपी अंधकार का निवारण करते हैं, नाश करते हैं।
अपने स्वभाव से च्युत होकर, मैं पर में, अन्य में ही अपनापन मानता रहा, समझता रहा और इस भव-समुद्र में/संसार में बहुत दुःख सहे 1 उन दुःखों की अनुभूति और स्व-पर की समझ-पहचान के लिए आपके समान कोई निमित्त अन्यत्र ढूंढ़ने से भी नहीं मिला। ___ मुझे मुक्ति-लाभ की, मोक्ष की राह की अब चाह हुई है, रुचि जागृत हुई है और असंयम के प्रति मेरा उत्साह अब समाप्त हो गया है । दौलतराम कहते हैं मेरे वित्त में यह विश्वास हो गया है कि मेरा हित वैराग्य में ही है, विरगता में ही है और तभी मुझे अपने दर्शन-ज्ञान- स्वरूप का ज्ञान हुआ है।
सामान्यत कम तक के आपण तिरिम करना ना
नासान्यस्त नयन = नाक के अग्रभाग पर दृष्टि स्थिर करना; लाह = लाभ।
दौलत भजन सौरभ