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अपनी तुच्छता का भान होने लगता है। वह आराध्य के प्रति आकर्षित होता जाता है और उसके प्रति श्रद्धा और प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है। इस श्रद्धा और प्रेम के वशीभूत होकर वह अपने आराध्य को मन में सैंजोए रखकर विकास की प्रेरणा प्राप्त करता रहता है। जितेन्द्रिय/त्रीतराग आराध्य उसको वीतरागः अनासक्त बनने की दिशा में प्रेरित करता है। वीतराग आराध्य भक्त का सहारा बनकर उसे आत्मानुभूति/आत्मानन्द में उतर जाने की ओर इंगित करता है । यही भक्ति को पूर्णता है। इस तरह से वीतराग की भक्ति वीतरागी बना देती हैं। भक्ति को परिपूर्णता में वीतरागी के प्रति राग तिरोहित हो जाता है। यहाँ यह समझना चाहिए कि भक्ति को प्रारम्भिक अवस्था में भी वीतरागी आराध्य के प्रति राग वस्तुओं और मनुष्यों के राग से भिन्न प्रकार का होता है। उसे हम उदात्त राग कह सकते हैं। इस उदास राग से संसार के प्रति आसति घटती है और व्यक्ति मानसिक तनाव से मुल जाता है। इससे जीवन की एवं जन्म जन्म की कुप्रवृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं और लोकोपयोगी सद्प्रवृत्तियों का जन्म होती हैं। इस तरह से इससे एक ऐसे पुण्य की प्राप्ति होती है जिसके द्वारा संचित पाप को नष्ट किए जाने के साथ-साथ समाज में विकासोन्मुख परिस्थितियों का निर्माण होती है। भक्ति की सरसता से व्यक्ति ज्ञानात्मक कलात्मक स्थायी सांस्कृतिक विकास की ओर झुकता हैं। वह तीर्थंकरों द्वारा निर्मित शाश्वत जीवन मूल्यों का रक्षक बनने में गौरव अनुभव करता है। इस तरह भक्ति व्यक्ति एवं समाज के नैतिक आध्यात्मिक विकास को दिशा प्रदान करती है
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इस 'दौलत भजन सौरभ' में भक्त कत्रि दौलतरामजी के द्वारा रचित १२४ भजनों का संकलन किया गया है। ये भजन विभिन्न विषयों से सम्बन्धित विविध भावों से ओत-प्रोत हैं। विषय-वस्तु की दृष्टि से इनका वर्गीकरण निम्न प्रकार कर सकते हैं
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गुरु का महत्व एवं स्वरूप मानव-जीवन में गुरु का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। जीवन में विकास की कोई भी दिशा हो उसके लिए गुरु का मार्गदर्शन अपेक्षित समझा जाता है। अभीष्ट को पाने के लिए गुरु का मार्ग-दर्शन विशेष महत्व रखता हैं क्योंकि गुरु की शिक्षाएँ हितकारी होती हैं, अनुभवसिद्ध होती हैं । कवि ने गुरु का स्वरूप बताते हुए कहा है- हमारे सत्गुरु ने ही हैं जिन्होंने दिगम्बर/ यथाजातरूप धारणकर (४५) राग द्वेष को त्याग दिया हैं, जो
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