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(१०) त्रिभुवनआनन्दकारी जिन छवि, थारी नैननिहारी॥टेक॥ ज्ञान अपूरब उदय भयो अब, या दिनकी बलिहारी। मो उर मोद बडो जु नाथ सो, कथा न जात उचारी॥१॥ सुन घनघोर मोरमुद ओर न, ज्यों निधि पाय भिखारी। जाहि लखत झट झरत मोह रज, होय सो भवि अविकारी॥२॥ जाकी सुंदरता सु पुरन्दर-शोभ लजावनहारी। निज अनुभूति सुधाछवि पुलकित, वदन मदन अरिहारी॥३॥ शूल दुकूल न बाला माला, मुनि मन मोद प्रसारी। अरुन न नैन न सैन भ्रमै न न, बंक न लंक सम्हारी॥४॥ तातै विधि विभाव क्रोधादि न, लखियत हे जगतारी। पूजत पातकपुंज पलावत, ध्यावत शिवविस्तारी॥५॥ कामधेनु सुरतरु चिंतामनि, इकभव सुखकरतारी। तुम छवि लखत मोदतें जो सुर, सो तुमपद दातारी॥६॥ महिमा कहत न लहत पार सुर, गुरुहूकी बुधि हारी। और कहै किम 'दौल' चहै इम, देहु दशा तुमधारी॥७॥
हे जिनेन्द्र ! आपकी शान्तमुद्रा तीनलोक को सुखी करनेवाली है, आनन्दित करनेवाली है । मैंने भी उस मुद्रा को अपने नैनों से निहारा है - देखा है, मैंने भी आपकी उस आनन्दमयी मुद्रा के दर्शन किये हैं।
जो अब से पहले कभी नहीं हुआ था, वह ज्ञान मुझे अब हुआ है । आज का दिन श्रेष्ठ है, बलिहारी है, समर्पण है इस दिन के प्रति। मेरे हृदय में जो आनन्द उमड़ रहा है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
दौलत भजन सौरभ