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(२) अरिरजरहस हनन प्रभु अरहन, जैवंतरे जगमें। देव अदेव सेव कर जाकी, धरहिं मौलि पगमें॥अरिरज.॥ जो तन अष्टोत्तरमहा लपवन लखि कलिल शमें। जो वचदीपशिखाते मुनि विचरै शिवमारगमें॥१॥अरिरज.।। जास पासतें शोकहरन गुन, प्रगट भयो नगमें। व्यालमराल कुरंगसिंधको, जातिविरोध गमें ।। २॥अरिरज.॥ जा जस-गगन उलंघन कोऊ, क्षम न मुनीखगमें। 'दौल' नाम तसु सुरतरु है या, भवमरुथलमगमें ॥३॥ अरिरज. ।
अरहंत प्रभु, जगत में सदा जयवन्त रहें, जिनो मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय, इन घातियाकर्मों का नाश किया है ! देव व अन्यजन सभी जिनके चरणों में अपना शीश झुकाकर, चरणों में मुकुट रखकर बन्दना करते हैं, सेवा करते हैं। __ जिनके शरीर में १००८ सुलक्षण देखकर सारे पापों का शमन हो जाता है। जिनकी दिव्यध्वनि के आलोक में (प्रकाश में) मुनिजन मोक्ष की राह में बढ़ते हैं।
जिनकी समीपता से वृक्ष में सारे खेद-शोक का नाश करने का गुण प्रकट हो जाता है और वह 'अशोक' वृक्ष कहलाने लगता है, जिनकी समीपता में शरण में सर्प व मोर, हरिण व सिंह सभी अपना जातिगत विरोध भूलकर गमन करते हैं, विचरण करते हैं।
जिनका यश सारे आकाश में, जगत में फैल रहा है। उस यश- गगन अर्थात् यश के विस्तार का पार पाने में मुनिरूपी पक्षी भी सक्षम नहीं हैं । दौलतराम कहते हैं कि इस भवरूपी रेगिस्तान की राह में वे कल्पवृक्ष के समान हैं। अरि - मोहनीय कम; रज ज्ञातावरण-दर्शनावरणकमं; रहस - अन्तरायकर्म: -ग - वृक्ष: क्षम . समर्थ; भवमरुथल - भवरूपो रेगिस्तान। दौलत भजन सौरभ