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(१२४) सौ सौ बार इटक नहिं मानी, नेक तोहि समझायो रे॥टेक।। देख सुगुरुकी परहित में रति, हितउपदेश सुनायो रे।। विषयभुजंगसेय दुखपायो, फुनि तिनसों लपटायो रे। स्वपदविसार रच्यो परपदमें, भदरत ज्यों बोरायो रे॥१॥ तन धन स्वजन नहीं है तेरे, नाहक नेह लगायो रे। क्यों न तजै भ्रम चाख समामृत, जो नित संतसुहायो रे ॥२॥ अब हू समझ कठिन यह नरभव, जिनवृष बिना गमायो रे। ते विलखें मणिडार उदधिमे, 'दौलत' को पछतायो रे॥३॥
अरे प्राणी ! तुझे अनेक बार समझाया, पर तू बार-बार मना करने पर भी नहीं मानता। देख, सत्गुरु को पर-कल्याण की भावना में रुचि है इस कारण तुझे तेरे हित का उपदेश दिया है।
विषयभोगरूपी नाग की तूने सेवा की है अर्थात् नाग-सरीखे विषैले विषयों में त लगा रहा है और अब भी बार-बार उन्हीं में रत है। अपने मूल स्वरूप को भूल करके तू पर में आसक्त होकर शराबी की भाँति नशे में बहक रहा है। ___यह तन, ये स्वजन कुछ भी तेरे नहीं हैं, तू व्यर्थ ही में इनसे मोह किए हुए है। इस मोह के भ्रम को छोड़कर तू संतजनों को सुहावना लगनेवाला आत्म.. हितकारी उपदेशरूपी अमृत का पान क्यों नहीं करता ! ___ अब भी समझ ले ! यह मनुष्य भव अत्यंत दुर्लभ है । इसे तूने धर्म-साधन के बिना यूँ ही गँवा दिया और अब भी गँवा रहा है । दौलतराम कहते हैं कि जैसे समुद्र में मणि-रत्न को डालकर फिर उसे पाने के लिए बिलख-बिलखकर, दु:खी होकर पछताना ही पड़ता है, उसी प्रकार तू भी पछतायेगा।
हारक = वर्जन, मना करना।
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दौलत भजन सौरभ