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(११९) तू काहेको करत रति तनमें, यह अहितमूल जिम कारासदन॥ टेक॥ चरमपिहित पलरुधिरलिप्त मल, - द्वार सवै छिन छिन में॥१॥ आयु-निगड फंसि विपति भैरै, सो क्यों न चितारत मनमें ।।२।। सुचरन लाग त्याग अब याको, जो न भ्रमै भववनमें ॥३॥ 'दौल' देहसों नेह देहको, - हेतु कयौ ग्रन्थनमें ॥४॥
हे जीव ! तू तेरी इस काया से प्रीति/अनुराग क्यों करता है ? यह काया ही तो तेरे अहित की जड़ है, अहित का कारण है, यह एक जेल के समान है।
ऊपर चमड़े से ढको हुई, भीतर मांस, रक्त और मल से सनी लिपटी हुई इस देह के द्वारों से अर्थात् कान-आँख-नाक, मुंह-गुदा और गुप्तेन्द्रिय से प्रत्येक क्षण मैल झरता है।निकलता रहता है। __ तू मन में यह क्यों नहीं विचार करता है कि तू आयु कर्म को बेड़ी में जकड़ा हुआ है, जो दुःखों से भरी हुई है।
अब अच्छे आचरण अर्थात् सम्यक्चारित्र का पालन करके इस आयु को इस प्रकार पूर्ण कर, देह को इस प्रकार त्याग जिससे पुन: संसार में भव-भ्रमण न करना पड़े।
दौलतराम कहते हैं कि सभी ग्रंथों में इस देह में राग करने को ही नवीन देह की उत्पत्ति का कारण बताया गया है।
चरमपिहित · चमड़े सं ढका हुआ; पत्ल - मांस; निगड़ - बेड़ी।
दौलत भजन सौरभ
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