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(११२) हम तो कबहुँ न निजगुन भाये। तन निज मान जान तनदुखसुख में बिलखे हरखाये॥हम तो.॥ तनको गरन मरन लखि तनको, धरन भान हम जाये। या भ्रम भौर परे भवजल चिर, चहुंगति विपत लहाये॥१॥ हम तो.।। दरशबोधव्रतसुधा न चाख्यौ, विविध विषय-विष खाये। सुगुरु दयाल सीख दइ पुन पुनि, सुनि सुनि अ नहि लाये।।२।हम तो.॥ बहिरातमता तजी न अन्तर-दृष्टि न है निज ध्याये। धाम-काम-धन-रामाकी नित, आश-हुताश जलाये ॥३॥हम तो.॥ अचल अनूप शुद्ध चिद्रूपी, सब सुखमय मुनि गाये। 'दौल' चिदानंद स्वगन मान जे, ते जिय सुनिगा थाये॥४॥हम तो.॥
अरे ! हमने कभी भी अपने गुणों का चिन्तन नहीं किया, उनकी भावना नहीं को। इस तन को अपना मानकर, अपना जानकर हम इस तन के दु:ख व सुख में ही रोते बिलखते, हँसते-मदमाते रहे।
यह तन पदगल का है, इस कारण गलना इसका स्वभाव है, इस तन का मरण हमने देखा है, इसे धारण करने को हमने जन्म होना समझा है ! इस धारणा को ही हम उचित ठहराते रहे और इस संसार-समुद्र में अनादि काल से पड़े भ्रम के भंवर में हम चारों गतियों की विपदाओं को भोगते रहे हैं।
दर्शन, ज्ञान और व्रत रूपी अमृत को हमने नहीं चखा, भाँति-भाँति के विषयों के विष का आस्वादन करते रहे । सत्गुरु ने बार-बार में उपदेश दिया, शिक्षा दी, जिसे सुन-सुनकर भी हमने हृदय से उसे नहीं स्वीकारा, विचार नहीं किया !
बहिरात्मता अर्थात् संसार की ओर उन्मुखता को, आकर्षण को नहीं छोड़ा और आत्मा की ओर मुड़कर हमने अपने स्वरूप का चिंतवन नहीं किया। घर, १६६
दौलत भजन सौरभ