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जीव तू अनादिहीतैं भूल्यों शिवगैलवा ॥ टेक ॥
मोहमदवार पियाँ, स्वपद विसार दियौ, पर अपनाय लियौ इन्द्रसुखमें रचियो भवतें न भियौ, न तजियाँ मनमैलवा ॥ १ ॥ जीव. ॥ मिथ्या ज्ञान आचरन धरिकर कुमरन, तीन लोककी धरन, तामें कियो है फिरन, पायो न शरन, न लहायौ सुखशैलवा ॥ २ ॥ जीव. ।।
अब नरभव पायौ, सुथल सुकुल आयौ, जिन उपदेश भायौ, 'दौल' झट छिटकायौ, परपरनति दखदायिनी चरलैवा ॥ ३ ॥ जीव. ।।
अरे जीव ! तू अनादिकाल से ही मोक्ष की गैल को, मोक्ष की राह को भूला हुआ है।
मोहरूपी शराब को पीकर अपने आपको भूल गया और पर की ओर आकर्षित होकर उसे ही अपना लिया, इंद्रिय सुखों में रत हो गया, उनमें ही लगा रहा और इस प्रकार न तो तू भव- भ्रमण के दुःखों से डरा और न अपने मन के मैल को धो सका |
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मिथ्यादर्शन - ज्ञान और चारित्र को धारणकर बार-बार दुःखजनित मृत्यु को पाता रहा और इस तीन लोक के भ्रमण में, इस भव- भ्रमण की जकड़न में उलझा हुआ बार-बार भटकता रहा अर्थात् बार-बार देह धारण करता रहा, जन्मता रहा। उसमें सुखरूपी शिखर तक पहुँचानेवाली, उच्चता को देनेवाली, कोई शरण नहीं गही, स्वीकार नहीं की।
हे भव्यजीव ! अब तुझे मनुष्य जन्म मिला है, अच्छा क्षेत्र- अच्छा कुल मिला है और जिनेन्द्र के उपदेश भी तुझे अच्छे लगने लगे हैं, सुहावने लगने लगे हैं तो दौलतराम कहते हैं कि अब तू पराश्रित, पर की परिणतिरूपी दुःखदायी चुड़ैल से बिना कोई विलम्ब किए छुटकारा पाले ।
भियाँ = भय, डर धरण पृथ्वी, गर्भाशय को बाँधकर रखनेवाली नस ।
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दौलत भजन सौरभ