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होनेवाला हैं । कर्म करके कर्मबंधन में बँधता है जिससे आत्मीय सुख की प्रतीति / अनुभव नहीं होता, उसकी हानि होती है ।
इस कर्मरूपी बने जंगल में इच्छाएँ जो कि आकुलतादायक हैं अर्थात् दुःख की खान हैं वे ही जलने योग्य ईंधन हैं। विवेक ज्ञानरूपी सरोवर को सुखाने के लिए ये विषय ही अपरिमित, अथाह मृत्यु के दाता हैं अर्थात् ये विषय - सुख ही बार-बार मृत्यु के कारण हैं, संसार-भ्रमण के कारण हैं, बार-बार देह धारण करने के कारण हैं ।
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यह सब देखकर तो तू इस संसार से देह से, उसके भोगों से विरक्त होकर उनसे रुचि हटाकर अपना हित करनेवाली जिनेन्द्र की वाणी को, उपदेश को सुन ! दौलतराम कहते हैं कि श्रीजिनदेव बार-बार समझाते हैं कि अभी भी अवसर है तू राग-द्वेष को छोड़ दे।
कृषि = कीड़ा; विट = विष्ठा, मल; गद रोग ।
दौलत भजन सौरभ
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