________________
(१२) हे मन तेरी को कुटेव यह, करनविषय में धावै है। टेक ।। इनहीके वश तू अनादित, निजस्वरूप न लखावै है। पराधीन छिन छीन समाकुल, दुर्गति विपति चखावै है॥१॥ फरस विषयके कारन बारन, गरत परत दुख पावै है। रसनाइन्द्रीवश झष जलमें, कंटक कंठ छिदावै है॥२॥ गन्धलोल पंकज मुद्रितमें, अलि निज प्रान खपावै है। नयनविषयवश दीप-शिक्षा में, अंग पतंग जरावै है॥३॥ करनविषयवश हिरन अरनमें, खलकर प्रान लुनावै है। 'दौलत' तज इनको जिनको भज, यह गुरु सीख सुनावै है।।४॥
अरे मन ! तेरी यह आदत खोटी है कि तू इंद्रियविषयों की ओर दौड़ता है। तू अनादि से इन ही के वशीभूत होकर अपने स्वरूप को नहीं देख पा रहा है। पराधीन होकर, प्रत्येक क्षण क्षीण होकर आकुलता उत्पन्न करनेवाली खोटी गति का व विपत्तियों का स्वाद चखता है अर्थात् दुःखी होता है।
स्पर्श इंद्रिय के वशीभूत होकर हाथी गड्ढे में गिर कर दुःख पाता है और रसना इंद्रिय के वशीभूत होकर जल में मछली अपने कंठ को काँटे से छेद लेती है। .
घ्राण के वशीभूत होकर भँवरा कमल में बंद होकर अपने प्राणों की बाजी लगाता है और नेत्रों के विषयवश पतंगा दीपक की लौ में पड़कर अपना शरीर जला देता है।
कानों में मधुर ध्वनि सुनकर, उसमें मुग्ध होकर हरिण वन में अपने प्राण गँवा देता है। दौलतराम कहते हैं कि सत्गुरु यह ही सीख देते हैं कि इनको छोड़ कर जिनेन्द्र भगवान के भजन में लग जा। बारन - हाथी; गरत - गर्त, गड्डा; झष - मछली; मुद्रित = बंद कमल; अरन = वन; लुनावै - नष्ट करना। दौलत भजन सौरभ
--
----
--
१३ta