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(७७) चेतन यह बुधि कौन सयानी, कही सुगुरु हित सीख न मानी॥ कठिन काकताली यौँ पायो, नरभव सुकुल श्रवनु जिनवानी॥चेतन.।। भूमि न होत चाँदनीकी ज्यौ, त्यौं नहिं धनी ज्ञेयको ज्ञानी। वस्तुरूप यौँ तू यौँ ही शठ, हटकर पकरत सोंज विरानी ॥१॥चेतन.॥ ज्ञानी होय अज्ञान राग-रुषकर निज सहज स्वच्छता हानी। इन्द्रिय जड़ तिन विषय अचेतन, तहां अनिष्ट इष्टता ठानी॥२॥चेतन.।। चाहै सुख, दुख ही अवगाहै, अब सुनि विधि जो है सुखदानी। 'दौल' आपकरि आप आपमैं घ्याय ल्याय लय समरससानी॥३॥चेतनः ।।
अरे चेतन ! तेरी बुद्धि का यह कैसा सयानापन हैं, कैसी चतुराई है कि तू सत्गुरु द्वारा दी गई तेरे हित की सीख-उपदेश को भी नहीं मानता, उसके अनुसार आचरण नहीं करता ! काकतालीय न्याय अर्थात् ऐसे कठिन संयोग से तूने यह नर- भव और उसमें भी ऐसा अच्छा कुल पाया है जिसमें जिनवाणी को सुनने का अवसर मिला है। ___ चंद्रमा की ज्योति - चाँदनी जिस भूमि पर पड़ रही है वह भूमि चाँदनी की नहीं हो जाती है, उसी प्रकार तू ज्ञानी यह विचारकर कि तेरे ज्ञान में झलक रहे ज्ञेयों का त स्वामी नहीं है। वस्तुस्वरूप जैसा है उसको वैसा न मानकर तू पर के परिणाम को अपना मानने व उसको पकड़ने की क्रिया कर रहा है। ___तू ज्ञानी होकर भी अज्ञान के कारण राग-द्वेषरूपी मैल के द्वारा अपनी आत्मा की निर्मलता की हानि कर रहा है और पौद्गलिक जड़ - इंद्रिय-विषय जो कि तेरे समान चेतन नहीं है, में इष्ट -अनिष्ट अभिप्राय जोड़ रहा है, स्थापित कर
तू चाहता तो सुख है, परंतु दु:खों में ही डुबकी लगा रहा है, अब सुन कि सुख प्राप्त करने की विधि - तरीका क्या है ! दौलतराम कहते हैं कि तू अपने आप में अपने स्वरूप का चिंतवन कर, जिसके ध्यान करने से समता आती है, इससे तू समता के रस में सन जावेगा, ओत-प्रोत हो जावेगा, लीन हो जावेगा।
दौलत भजन सौरभ
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