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(५६) चन्द्रानन जिन चन्द्रनाथके, चरन चतुर-चित ध्यावतु हैं। कर्म-चक्र-चकचूर चिदातम, चिनमूरत पद पावतु हैं। टेक॥ हाहा-हूहू-.-नारद --तुंवर डाघु अगल जा गाजनु हैं। पमा सची शिवा श्यामादिक, करधर बीन बजावतु हैं ॥१॥ विन इच्छा उपदेश माहिं हित, अहित जगत दरसावतु हैं। जा पदतट सुर नर मुनि घट चिर, विकट विमोह नशावतु हैं॥२॥ जाकी चन्द्र बरन तनदुतिसों, कोटिक सूर छिपावतु हैं।
आतमजोत उदोतमाहिं सब, ज्ञेय अनंत दिपावतु हैं॥३॥ नित्य-उदय अकलंक अछीन सु, मुनि-उडु-चित्त रमावतु हैं। जाकी ज्ञानचन्द्रिका लोका-लोक माहिं न समावतु हैं॥४॥ साम्यसिंधु-वर्द्धन जगनंदन, को शिर हरिगन नावतु हैं। संशय विभ्रम मोह 'दौल' के, हर जो जगभरमावतु हैं ॥५॥
चन्द्रमा के समान मुख है जिनका ऐसे श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र के चरणों का विवेकीजन ध्यान करते हैं, जिससे वे कर्मचक्र का नाशकर शुद्ध ज्ञानमयी आत्मा का पद - मोक्ष को पाते हैं।
गंधर्व जाति के (हाहा, हूहू, नारद और तुंबर) देव आपका यशगान करते हैं । लक्ष्मी, इन्द्राणी, शिवा, श्यामा आदि देवियाँ हाथों में बीन लेकर बजा रही हैं।
जिनका उपदेश बिना किसी इच्छा के, नियोगवश-जगत को हित-अहित का भेद बतानेवाला है, जिनके चरणरूपी किनारे का आश्रय सुर- नर और मुनिगण के हृदय से विकट-कठिन विमोह का स्थायीरूप से नाश करनेवाला है।
दौलत भजन सौरभ