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पद्मसद्म पद्यापद पद्मा, मुक्तिसरा दरशावन है। कलि-मल-गंजन मन अलि रंजन, मुनिजन शरन सुपावन है। जाकी जन्मपुरी कुशंबिका, सुर नर-नाग रमावन है। जास जन्मदिनपूरब घटनव, मास रतन बरसावन है॥१॥ जा तपथान पपोसागिरि सो, आत्म-ज्ञान थिर थावन है। केवलजोत उदोत भई सो, मिथ्यातिमिर-नशावन है॥२॥ जाको शासन पंचाननसो, कुमति मतंग नशावन है। राग बिना सेवक जन नारक, है जानु तुम भ न । जाकी महिमाके वरननसों, सुरगुरु बुद्धि थकावन है। 'दौल' अल्पमतिको कहबो जिमि, शशकगिरिद धकावन है॥४॥
हे पद्मप्रभ जिनदेव ! आप मोक्षरूपी लक्ष्मी के स्वामी हैं और आपके चरण कमल मुक्ति की दिशा - स्थान को बतानेवाले हैं । आप पापरूपी मैल का नाश करनेवाले हैं, आप मनरूपी भ्रमर को प्रसन्नता देनेवाले कमल हैं, मुनिजनों के लिए पवित्र शरणदाता हैं।
सुर, नर और नाग सभी के मन को भानेवाली कोशांबी नगरी जिनकी जन्मस्थली है । जिनके जन्म से पंद्रह मास पूर्व से वहाँ रत्नों की वर्षा होने लगी थी।
पपोसा पर्वत जिनका तपस्थान है जो आत्मज्ञान में एकाग्र होने का, स्थिर होने का स्थान है। वहाँ ही आपने मिथ्यात्वरूपी अंधकार का नाश करनेवाले कैवल्य को प्राप्त किया।
आपका उपदेश सिंह की भाँति मिथ्यात्वरूपी हाथी का नाश करनेवाला है। आप बिना किसी राग के उन सेवकजनों को तारते हो जिनके कुछ भी राग-द्वेष - ममत्व नहीं रहता अर्थात् जो राग-द्वेषरहित होकर समतावान होते हैं आप उन्हें तारते हो।
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दौलत भजन सौरभ