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प्राक्कथन
प्राचीन मूल ग्रन्थों की सुस्पष्टता हेतु व्याख्या साहित्य की रचना भारतीय मनीषियों की प्राचीन परम्परा रही है । ग्रन्थ में प्रतिपादित गूढ़ शब्दों के सम्यक् अर्थ को स्पष्ट करने के लिए ग्रन्थ की प्रामाणिक व्याख्याओं का अध्ययन बहुत उपयोगी ही नहीं बल्कि अनिवार्य भी है। जैन परम्परा के अर्धमागधी आगम साहित्य पर रची गई व्याख्याओं - विशेषत: प्राकृत भाषा में निबद्ध नियुक्ति, भाष्य आदि साहित्य का अध्ययन, आगमों में निहित गूढार्थ को समझने के लिए आवश्यक है । इनको सुगम बनाने के लिए इनके अनुवाद और समीक्षात्मक अध्ययन की जरूरत है।
जैनागमों का सम्पादन, अनुवाद एवं अध्ययन भारतीय और विदेशी दोनों विद्वानों द्वारा पर्याप्त संख्या में प्रकाश में आया है । आगम के अङ्ग, उपाङ्ग, मूलसूत्र छेदसूत्र और चूलिकासूत्र के अनेक संस्करण उपलब्ध हैं। निर्युक्तियों भाष्यों, चूर्णियों तथा टीकाओं के अपने-अपने मूल ग्रन्थों के साथ तथा कुछ स्वतन्त्र संस्करण भी मिलते हैं। परन्तु आगमिक व्याख्याओं के अनुवाद का नगण्य प्रयास हुआ है। किसी नियुक्ति का हिन्दी अनुवाद अभी तक प्रकाश में नहीं आया है।
आगमिक व्याख्या साहित्य-निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि की उपेक्षा की ओर सङ्केत करते हुए स्व०बी०के०खडबडी ने सटीक टिप्पणी की है कि- "The state of knowledge of the other three classes was so poor that even scholar like Jacobi at times confounded Bhāṣya and Cūrṇi, and Jarl Charpentier rather conjectured the cūrṇi as mertical. The Niryukti, the first type of exegetical literature being long ago ignored by the later Sanskrit Commentators (Ṭīkākāra) by dropping them from their works, likewise had received scant attention in our days (Aspects of Jaingy, Vol.III. P.V., p. 27 ).
इसीलिए नियुक्ति साहित्य के अनुवाद का कार्य आरम्भ किया। इस क्रम में छेदसूत्र दशाश्रुतस्कन्ध पर भद्रबाहु द्वारा निबद्ध दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति का हिन्दी अनुवाद, संस्कृत छाया एवं अध्ययन के साथ प्रथम प्रयास के रूप में प्रस्तुत है । सामान्य रूप से निर्युक्ति और विशेष रूप से दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति पर किये गये कार्यों का पूर्वावलोकन करने पर ज्ञात होता है कि इस निर्युक्ति पर स्वतन्त्र लेख भी नहीं प्राप्त होते हैं। इसके दो प्रकाशित संस्करण अवश्य मिलते हैं। आदरणीया