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छेदसूत्रागम और दशाश्रुतस्कन्ध
आगामी भव में ऐच्छिक सुख या अवस्था प्राप्त करने के लिए दाँव पर लगा देना 'निदान' कहा जाता है। ऐसा करने से यदि संयम-तप की पूँजी अधिक हो तो निदान करना फलीभूत हो जाता है किन्तु उसका परिणाम हानिकर होता है। दूसरे शब्दों में राग-द्वेषात्मक निदानों के कारण निदान फल के साथ मिथ्यात्व, नरकादि दुर्गति की प्राप्ति होती है और धर्मभाव के निदानों से मोक्षप्राप्ति में बाधा होती है। अत: निदान कर्म त्याज्य है। वस्तुत: दशम अध्ययन का नाम आयति स्थान है। इसमें विभिन्न निदानों का वर्णन है। निदान का अर्थ है- मोह के प्रभाव से कामादि इच्छाओं की उत्पत्ति के कारण होने वाला इच्छापूर्तिमूलक सङ्कल्प। यह सङ्कल्प-विशेष ही निदान है।
आयति का अर्थ जन्म या जाति है। निदान, जन्म का कारण होने से आयति स्थान माना गया है। आयति अर्थात् आय+ति, आय का अर्थ लाभ है। अत: जिस निदान से जन्म-मरण का लाभ होता है उसका नाम आयति है। दशाश्रुत में वर्णित निदान इसप्रकार हैं१. निर्ग्रन्थ द्वारा पुरुष-भोगों का निदान। २. निर्ग्रन्थी द्वारा स्त्री-भोगों का निदान। ३. निर्ग्रन्थ द्वारा स्त्री-भोगों का निदान। ४. निम्रन्थी द्वारा पुरुष-भोगों का निदान। ५-६-७. सङ्कल्पानुसार दैविक सुख का निदान। ८. श्रावक-अवस्था प्राप्ति का निदान। ९. श्रमण जीवन प्राप्ति का निदान। ____ इन निदानों का दुष्फल जानकर निदान रहित संयम तप की आराधना करनी चाहिए। विषय-वस्तु का महत्त्व __ दशाश्रुतस्कन्ध की विषय-वस्तु पर विचार करते हुए आचार्य देवेन्द्रमुनि५ ने कहा है कि असमाधि स्थान, चित्तसमाधि स्थान, मोहनीय स्थान और आयतिस्थान में जिन तत्त्वों का सङ्कलन किया गया है, वे वस्तुतः योगविद्या से सम्बद्ध हैं। योग की दृष्टि से चित्त को एकाग्र तथा समाहित करने के लिए ये अध्ययन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। उपासक प्रतिमा और भिक्षु प्रतिमा, श्रावक व श्रमण की कठोरतम साधना के उच्चतम नियमों का परिज्ञान कराते हैं। शबलदोष और आशातना इन दो दशाओं में साधु जीवन के दैनिक नियमों का विवेचन किया गया है और कहा गया है कि इन नियमों का परिपालन होना ही चाहिए। चतुर्थ दशा गणि सम्पदा में आचार्य पद पर विराजित व्यक्ति