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छेदसूत्रागम और दशाश्रुतस्कन्ध
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४. अज्ञात क्षेत्र में दो दिन और ज्ञात--परिचित क्षेत्रों में एक दिन से अधिक नहीं
ठहरना। ५. चार कारणों के अतिरिक्त मौन ही रहना, धर्मोपदेश भी नहीं देना। ६-७. तीन प्रकार की शय्या और तीन प्रकार के संस्तारक का ही उपयोग करना। ८-९. साधु के ठहरने के बाद उस स्थान पर कोई स्त्री-पुरुष आयें, ठहरें या अग्नि
लग जाये तो भी बाहर नहीं निकलना। १०-११. पैर से काँटा या आँख से रज आदि नहीं निकालना। १२. सूर्यास्त के बाद एक कदम भी नहीं चलना। रात्रि में मल-मूत्र की बाधा होने
पर जाने का विधान है। १३. हाथ-पैर में सचित्त रज लग जाए तो प्रमार्जन नहीं करना और स्वत: अचित्त
न हो जाए तब तक गोचरी आदि भी नहीं जाना। १४. अचित्त जल से भी सुख-शान्ति के लिए हाथ-पैर प्रक्षालन-निषेध। १५. उन्मत्त पशु भी चलते समय सामने आ जाए तो मार्ग नहीं छोड़ना। १६. धूप से छाया में और छाया से धूप में नहीं जाना ।
प्रथम सात प्रतिमाएँ एक-एक महीने की हैं। उनमें दत्ति की संख्या १ से ७ तक वृद्धि होती है। आठवीं, नवीं, दसवी प्रतिमाएँ सात-सात दिन की एकान्तर तप युक्त की जाती हैं। सूत्रोक्त तीन-तीन आसन में से रात्रि भर कोई भी एक आसन किया जाता है। ___ ग्यारहवीं प्रतिमा में छ? के तप के साथ एक अहोरात्र का कायोत्सर्ग किया जाता है।
बारहवीं भिक्षुप्रतिमा में अट्ठम तप के साथ श्मशान आदि में एक रात्रि का कायोत्सर्ग किया जाता है।
अष्टमदशा
इस दशा का नाम पर्युषणाकल्प है। इसमें भिक्षुओं के चातुर्मास एवं पर्युषणा, सम्बन्धी समाचारी के विषयों का कथन है। वर्तमान कल्पसूत्र आठवीं दशा से उद्धृत माना जाता है।
नवमदशा
आठ कर्मों में मोहनीय कर्म प्रबल है, महामोहनीय कर्म उससे भी तीव्र होता है। उसके बन्ध सम्बन्धी ३० कारण यहाँ वर्णित हैं