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दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति : एक अध्ययन
आगम-वर्गीकरण के रूप में छेदसूत्र संज्ञा का अस्तित्व आने के पहले ही छेदसूत्र वर्ग में समाविष्ट कुछ ग्रन्थों या सभी छः ग्रन्थों का उल्लेख प्राप्त होता है। छेदसूत्र ग्रन्थों में से आचारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध) का उल्लेख स्थानाङ्ग में प्राप्त होता हैं। समवायाङ्ग में दशा- कल्प- व्यवहार इन तीन के उद्देशनकाल की चर्चा है।
के साथ उपाङ्ग शब्द का
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आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य' में निर्देश किया है। उपाङ्ग शब्द से उनका तात्पर्य अङ्ग ग्रन्थों से है। आचार्य उमास्वाति द्वारा अङ्ग बाह्य की सूची में दशा आदि छेद ग्रन्थों का एक साथ निर्देश उनके वर्गीकरण की पूर्व सूचना देता है।
दिगम्बर परम्परा में आगम मान्य षट्खण्डागम की प्रख्यात धवलाटीका में अङ्ग बाह्य आगमों की चर्चा के प्रसङ्ग में कप्प, ववहार, कप्पाकप्पिय, महाकप्पिय, पुंडरीय, महापुंडरीय और निसीह का निर्देश है। पण्डित मालवणिया के अनुसार छेदसूत्रों के मध्य पुण्डरीक और महापुण्डरीक के उल्लेख को यदि छोड़ दिया जाय तो धवला भी छेद के वर्गीकरण की सूचना दे रही है।
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श्रीचन्द्र आचार्य (ई० १११२ से प्रारम्भ) ने सुखबोधा सामाचारी' की रचना की है। उन्होंने आगम के स्वाध्याय की तपोविधि का वर्णन किया है। उसमें उल्लेख है कि प्रथम चार आचाराङ्ग से समवायाङ्ग तक पढ़ने के बाद निशीथ, जीतकल्प, पञ्चकल्प, कल्प, व्यवहार और दशा पढ़े जाते थे। निशीथ आदि की छेदसंज्ञा का यहाँ उल्लेख नहीं है किन्तु इन सबको एक क्रम में रखा गया है यह उनकी एक वर्ग से सम्बद्धता सूचित करता है ।
जिनप्रभकृत सिद्धान्तागमस्तोत्र" में भी आगमों के नामपूर्वक स्तवन के क्रम में निशीथ, दशाश्रुत, कल्प, व्यवहार, पञ्चकल्प, जीतकल्प और महानिशीथ का एक साथ उल्लेख है। इससे स्पष्ट है कि भले ही जिनप्रभ ने वर्गों के नाम नहीं दिये किन्तु उस समय तक कौन ग्रन्थ किसके साथ उल्लिखित होना चाहिए, ऐसा क्रम तो बन ही गया होगा ।
आचार्य जिनप्रभ ने विधिमार्गप्रपा १ (१३०६ ई०) में भी आगमों के स्वाध्याय की तपोविधि का वर्णन करते हुए ५१ ग्रन्थों का उल्लेख किया है। इसमें क्रमसंख्या ८- निशीथ, ९-११ दशा- कल्प-व्यवहार, १२ पञ्चकल्प और १३ - जीतकल्प का एक क्रम में उल्लेख है।
जिनप्रभ ने जोगविहाण " शीर्षक प्राकृत गाथा प्रकरण का भी उल्लेख अपने ग्रन्थ में किया है। इसमें समवायाङ्ग के पश्चात् दसा कप्प-ववहार- निसीह का उल्लेख करके इनकी ही छेदसूत्र ऐसी संज्ञा भी प्रदान की है। (गाथा २२, पृ० ५९)