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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति मूल-छाया-अनुवाद १६१ दव्वे भावे य सरीरसंपया छव्विहा य भावंमि। दव्वे खेत्ते काले भावम्मि य संगहपरिण्णा ॥२९॥ जह गयकुलभूओ गिरिकंदरकडगविसमदुग्गेसु । परिवहइ अपरितंतो निअयसरीरुग्गए दंते॥३०॥ तह पवयणभत्तिगओ साहम्मियवच्छलो असढभावो । परिवहइ असहुवग्गं खेत्तविसमकालदुग्गेसु॥३१॥
गणिणिज्जुत्ती समत्ता।।४।। ।।५।। पञ्चम श्रेण्यध्ययननियुक्तिः ।। दव्व तदट्ठोवासकमोहे भावे उवासका चउरो। दव्वसरीरभविओ तदट्ठिओ उयणाईसु॥३२॥ द्रव्ये भावे च शरीरसम्पत् षड्विधा च भावे। द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे च संग्रहपरिज्ञा ॥२९॥ यथा गजकुलभूतः गिरिकन्दरकटकविषमदुर्गेषु। परिवहति अपरितान्तः निजकशरीरोद्गतौ दन्तौ ॥३०॥ . तथा प्रवचनभक्तिगतःसाधर्मिकवत्सलःअशठभावः। परिवहति असहवर्ग क्षेत्रविषमकालदुर्गेषु ॥३१॥ द्रव्यतदर्थोपासको मोहो भावो उपासकाः चत्वारः । द्रव्यशरीरभव्यः तदर्थिकः ओदनादिषु ॥३२॥
शरीर सम्पदा दो प्रकार की होती है-द्रव्य और भाव। भाव दृष्टि से (शरीर सम्पदा) छ: प्रकार की होती है। संग्रहपरिज्ञा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव दृष्टि से (चार प्रकार की होती है)।।२९।।
जिस प्रकार गजवंशे में उत्पन्न, पर्वत, कन्दरा, पर्वतखण्ड और विषम स्थानों पर बिना खिन्न हुए अपने शरीर पर उगे हुए दाँतों को वहन करता है उसी प्रकार प्रवचन अर्थात् जिनप्रणीत सिद्धान्त के प्रति भक्ति से युक्त, साधर्मिकवत्सल तथा असमर्थ जनों को विषमक्षेत्र और दुष्काल में सरलतापूर्वक वहन (सहायता आदि प्रदान) करता है।।३०-३१।।