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प्राक्कथन
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की दृष्टि से अध्ययन किया गया है। जो गाथायें छन्द-दृष्टि से शुद्ध नहीं है उनमें अपेक्षित संशोधन सुझाये गये हैं। इन संशोधनों के लिए जैन वाङ्मय में अन्यत्र इस नियुक्ति की जो समान्तर गाथायें प्राप्त होती है उनका सङ्ग्रह किया गया है। सम्बद्ध गाथाओं के पाठ-भेदों का तुलनात्मक विवेचन कर अपेक्षित पाठों का सुझाव दिया गया है।
चतुर्थ अध्याय 'दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति में इङ्गित दृष्टान्त' है। धर्मकथाओं का संक्षिप्त रूप- मात्र एक-दो गाथाओं में कथा के मुख्य बिन्दुओं तथा घटनाओं के सङ्केत ही नियुक्ति में प्राप्त होते हैं। उसका पूर्ण स्वरूप परवर्ती चूर्णि साहित्य में उपलब्ध होता है। इस अध्याय में चूर्णियों- विशेषत: निशीथसूत्रभाष्यचूर्णि और दशा तस्कन्यचूर्णि में प्राप्त कथा के मूल पाठ दिये गये हैं तथा चूर्णिपाठों के आधार पर हिन्दी में सारांश प्रस्तुत किया गया है। - नियुक्ति में अधिकरण अर्थात् पाप के दुष्परिणाम, क्षमा का माहात्म्य और चारों कषायों- क्रोध, मान, माया और लोभ के दुष्परिणामों को बताने वाली कथाओं को दृष्टान्त रूप में प्रस्तुत किया गया है। इन कथाओं का मन्तव्य श्रमण-श्रमणी वर्ग और श्रावक-श्राविका वर्ग को अधिकरण, कषायादि से विरत रहने, क्षमा आदि धर्मों का पालन करने की प्रेरणा देना है।
दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन के चारों अध्यायों का निष्कर्ष उपंसहार के रूप में प्रस्तुत है।
पुस्तक के अन्त में गाथानुक्रमणिका, शब्दानुक्रमणिका और सन्दर्भग्रन्थ-सूची दी गई है।
अपनी इस प्रथम पुस्तक प्रकाशन की बेला में मैं सर्वप्रथम अपनी माता स्वर्गीया शिवकुमारी देवी एवं पिता स्व० हरिद्वार सिंह को श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हूँ जिनकी पुण्यस्मृति हमारे लिए प्रतिक्षण प्रेरणादायिनी है।
तत्पश्चात् उन विद्वानों के प्रति सादर भाव से नतमस्तक हूँ जिन्होंने पूर्व में इससे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित विषयों पर ग्रन्थों तथा शोध लेखों के माध्यम से प्रकाश डाला है और जिनके अध्ययन और उपयोग का मुझे अवसर प्राप्त हुआ है। __ जैन विद्या के शीर्षस्थ विद्वान् परमादरणीय पद्मभूषण पं० दलसुख भाई मालवणिया जी की यह प्रेरणा कि जैन अध्ययन को व्यापक बनाने के लिए 'प्राकृत एवं संस्कृत में निबद्ध जैन पाण्डुलिपियों का सम्पादन एवं मूल ग्रन्थों का अनुवाद एवं अध्ययन