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छन्द-दृष्टि से दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : पाठ-निर्धारण
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एल०एल्सडोर्फर के इस अभिमत को कि प्राचीन जैनाचार्यों ने गाथाओं की रचना में छन्दों और प्राकृत भाषा के नियमों की उपेक्षा की पूर्णतया स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इस दृष्टि से अध्ययन करने पर यह धारणा बनती है कि उक्त अशुद्धियाँ पाण्डुलिपियों के लेखक, सम्पादक और किञ्चित् अंशों में मुद्रण-दोष के कारण भी नियुक्तियों में आ गई हैं। हाँ, कुछ अंशों में नियुक्तिकार का छन्द और व्याकरण के प्रति उपेक्षात्मक दृष्टिकोण भी उत्तरदायी हो सकता है।
सन्दर्भ:
दशा तस्कन्ध-मूल-नियुक्ति-चूर्णि, मणिविजयगणि ग्रन्थमाला, सं०१४, भावनगर १९५४। “दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति", "नियुक्तिसङ्ग्रह' सं० जिनेन्द्रसूरि, हर्षपुष्पामृत
जैन ग्र०मा०, १८९, लाखाबावल १९८९, पृ० ४७६-४९६। ३. H.R.Kapadia, 'Government Collection of Manuscripts', भाण्डारकर
ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टीच्यूट, खण्ड १७, भाग-२, पूना १९३६,पृ.६७। जैनसाहित्य का वहइतिहास, भाग १, पा०वि०प्र०मा०सं०६, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, द्वि०सं०१९८९, पृ० ३४। संग्रा.हदा० वेलणकर, जिनरलकोश, खण्ड एक, गवर्नमेण्ट ओरिएण्टल सिरीज, भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टीच्यूट, पूना १९४४,पृ.१७२। H.R. Kapadia, 'A History of the cononical Literature of Jainas'
लेखक, सूरत १९४१, पृ० १८२। __ कापडिया, 'Government Collection', ओरिएण्टल, पूना १९३६,पृ०६७।
कापडिया, 'Canonical', सूरत १९४४, पृ० १८२। निशीथसूत्रम् (भाष्य एवं चूर्णि सहित), सं० आचार्य अमरमुनि, ग्र०मा०सं०५, भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली और सन्मति ज्ञानपीठ, राजगृह, उद्देशक १०, गाथा ३१३८-३२०९, (भाग ३)। द००, मणिविजय ग्र०मा० १४, भावनगर १९५४, पृ० ५५।
नि०भा०चू०, ३, अमरमुनि, ग्र.मा. सं० ५, दिल्ली, राजगृह, पृ.१३२। १२. द.चू०, भावनगर १९५४, पृ० ५७। १३. नि०मा०पू०, दिल्ली, राजगृह, पृ० १३५-१३६ ।