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छहढ़ाला
शरीर को क्षीण करने वाली अनेकानेक जो-जो क्रियाएँ की जाती हैं उन्हें गृहीत मिथ्याचारित्र कहते हैं ।
प्रश्न ८-गृहीत मिथ्याचारित्र का लक्षण बताइए ।
उत्तर-ख्याति, लाभ, पूजा, प्रतिष्ठा की भावना से धारण किया गया जप-तप, संयम जो स्व-परविवेक से रहित हैं, सारा गृहीत मिथ्याचारित्र है जैसे- पंचाग्नि तप करना ।
पर्वत से गिरना ।
शक्ति से अधिक त्याग आदि । प्रश्न ९--इसका फल बताइए । उत्तर... शरीर का सूखना मात्र हैं । आत्म-कल्याण नहीं है ।
ते सब मिथ्याचारित्र त्याग,
अब आतम के हित पन्थ लाग । जगजालभ्रमण को देह त्याग,
अब 'दौलत' निज आतम सुपाग ।।१५।। शब्दार्थ-ते सब = उन सब । पंथ = रास्ता । लाग = लगाकर । जग = संसार । जाल = फन्दा । भ्रमण = घूमना । निज : अपना ! पाग = अच्छी तरह ।
अर्थ—उन सब मिथ्याचारित्रों का त्याग कर अपनी आत्मा की भलाई के मार्ग में लग जाना चाहिए । हे दौलतराम । संसार-प्रमण का त्याग कर अपनी आत्मा में अच्छी तरह लीन हो जाओ ।।
प्रश्न १–भव्यात्माओं को क्या करना चाहिए ?
उत्तर--सब प्रकार मिथ्याचारित्र को छोड़कर, आत्मा को उन्नति के मार्ग में लग जाना चाहिए ।
प्रश्न २-~-आत्मा में लीन होने के लिए क्या करना चाहिए ?
उत्तर–“जग जाल भ्रमण को देहु त्याग' संसर-भ्रमण की कारण मिथ्या विपरीत मान्यता का त्याग करो | बिना मिथ्यात्व को त्यागे आत्मध्यान कभी नहीं बनता है।