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छहढ़ाला अन्तर चतुर्दश भेद बाहर, रंग दाना ४ । परमाद तजि चउ कर मही लखि, समिति ईर्या से चलें ।। जग सुहित कर सब अहित हर, श्रुति सुखद सब संशय हरें । प्रम-रोग-हर जिनके वचन, मुख-चन्द्रौं अमृत झरै ।।२।। छयालीस दोष विना सुकुल श्रावकतने घर अशन को । ले तप बढ़ावन हेतु नहिं तन, पोषते तजि रसन को ।। शुचि ज्ञान संयम उपकरण, लखिकै गहैं लखिक धरै । निर्जन्तु थान विलोकि तन, मल मूत्र श्लेषम परिहरैं ।।३।। सम्यक् प्रकार निरोध मन वच, काय आतम ध्यावतै । तिन सुथिरमुद्रा देखि मृगगण, उपल खाज खुजावते ।। रस रूप गन्ध तथा फरस अरु, शब्द सुह असुहावने । तिनमें न राग विरोध पंचेन्द्रिय जयन पद पावने ।।४।। समता सम्हारै थुति उचारे, वन्दना जिनदेव को । नित करै श्रुतिरति करै प्रतिक्रम, तजै तन अहमेव को ।। जिनके न न्हौन न दन्तधावन, लेश अंबर आवरन । भूमाहि पिछली रयन में कछु, शयन एकासन करन ।।५।। इक बार दिन में ले अहार, खड़े अलप निजपान में । कचलोंच करत न डरत परिषह, सों लगे निजध्यान में ।। अरि मित्र महल मसान कंचन, काँच निन्दन थुतिकरन । अर्यावतारन असि-प्रहारन, में सदा समता धरन ।।६।। तप तपें द्वादश धरै वृष दश, रतनत्रय सेवै सदा । मुनि साथ में या एक विचरै, चहें नहिं भवसुख कदा ।। यों है सकलसंयम चरित, सुनिये स्वरूपाचरण अब । जिस होत प्रगटै आपनी निधि, मिटे परकी प्रवृत्ति सब ।।७।।