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छहढाला
ताहू में फिर ग्राम, गली गृह बाग बजारा गमनागमन प्रमान ठान, अन सकल निवारा ।।
काहू की धन हानि, किसी जय हार न चिंतै । देय न सो उपदेश, होय अघ वनज कृषीतें ।। ११ ।।
११२
कर प्रसाद जल भूमि, वृक्ष पावक न विराधै । असि धनु हल हिंसोपकरण, नहिं दे यश लाधै ।। राग द्वेष करतार, कथा कबहूँ न सुनीजे । औरहु अनरथदंड हेतु, अघ तिन्हें न कीजे ।।१२।। घर उर समता भाव, सदा सामायिक करिये । पर्व चतुष्टय माँहि पाप तजि प्रोषध घरिये ।। भोग और उपभोग, नियम करि ममतु निवारै । मुनि को भोजन देय, फेर निज करहि अहारै ।। १३१ । बारह व्रतके अतीचार, पन पन न लगावै । मरन समय संन्यास धार तत्तु दोर नशायें यों श्रावक व्रत पाल, स्वर्ग सोलम उपजावै । तहतैं चय नर- जन्म पाय, मुनिं है शिव जावै ।। १४ ।।
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पाँचवीं ढाल सखी छन्द
मुनि सकलन्नती बडभागी, भव भोगनतें वैरागी । वैराग्य उपावन माई, चिन्त्यो अनुप्रेक्षा भाई ||१|| इन चिन्तन समरस जागै, जिमि ज्वलन पवनके लागे । जब ही जिय आतम जानै, तब ही जिय शिव सुख ठानै ।। २।। जोबन गृह गोधन नारी, हय गय जन आज्ञाकारी । इन्द्रिय भोग छिन थाई, सुरधनु चपला चपलाई ।। ३ ।। सुर असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों हरि काल दले ते । मणि मन्त्र तन्त्र बहु होई, मरते न बचावै कोई ||४||