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चतुर्विशति स्तोत्र नहीं और द्रव्य भी पर्यायों का सर्वथा निषेध कर भिन्न रूप नहीं हो सकता कारण कि पयार्यों में पारा भेद नहीं है त. 'सका गुम्... प्रदेश स्वावलमता को प्राप्त होकर भी प्रदेश सत्ता से सर्वथा भिन्न नहीं है । सत् धर्म का त्याग कर स्कन्ध नहीं होता, इस अपेक्षा से अपनी-अपनी सत्ता रूप में ही स्थित हैं । अतः एकान्त रूप से मिलकर भी एकरूपता को धारण नहीं करते । अभिप्राय यह है कि आपने प्रत्येक परमाणु को सत् रूप बतलाया है । यद्यपि ये अपनी स्वभाव शक्ति से स्कंध रूप परिणमन करते हैं तो भी स्वरूप सत्ता का परित्याग नहीं करते ॥ २० ।।
आपके सिद्धान्त में तत्त्व परिज्ञान की पद्धति अत्यन्त दुर्गम, अगाध. और महान अद्भुत है । क्यों कि एक ही वस्तु तत्त्व एक ही समय में भेद रूप भी है और अभेदरूप भी । इस गहन मार्ग में अनेकान्त सिद्धान्त ही प्रवेश पा सकता है । इसके अतिरिक्त प्रतीति कराने वाला कोई नहीं है । समय की सीमा का उलंघन करने वाली और अनाकुल, हर एक पहलू से आपही की अनन्त ज्ञान दृष्टियों विचरण करती हैं । अनेक धर्मात्मक तत्त्व की विवेचना के लिए अनेक नयात्मक दृष्टिकोण चाहिये, वे आपके ही प्रणीत दर्शन में व्यवस्थित हैं । वस्तु स्वरूप प्रतिपादन का माध्यम वचन हैं और वचनों द्वारा एक साथ सकलवस्तुतत्त्व कथित करना असंभव है अतः भेदरूप करके ही व्यवहृत करते हैं | प्रमाण स्वयं में पूर्ण होने से सम्पूर्ण वस्तु को एक साथ अभेदरूप में ग्रहण कर लेता है ! इस तथ्य के ज्ञाता भगवन! आप ही हैं ॥ २१ ॥
सकल पदार्थ समुदाय अभिनव भिन्न रूप से स्थित हैं । अर्थात् शुद्ध निश्चयनय से अभिन्न है सत् प्रत्यय से इसी प्रकार प्रतीति होती है । व्यवहारनय की अपेक्षा विशेष दृष्टिकोण से भिन्न-भिन्न हैं । इसी प्रकार का अशेष संसार आपके समक्ष प्रत्यक्ष हो रहा है । अर्थात् 'हस्तामलक' वत् सम्पूर्ण जगत् आपके केवलज्ञान में भिन्नाभिन्नरूप से प्रतिभासित हुआ है । स्पष्ट रूप से आपकी आत्मा-ज्ञानधनस्वरूप अभिन्न सत्ता स्वरूप होकर भी विभिन्न अनन्त पर्यायों के वैभव से सम्पन्न है ।। २२ ।।