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इस ग्रन्थ के लेखक तीर्थ भक्त शिरोमणि समाधि सम्राट् परम् पूज्य आचार्य श्री 108 महावीर की भी हैं। जिन्हें ... वी सावर्ती आचार्य रत्न 108 श्री आदिसागर जी महाराज (अंकलीकर) ने अपना आचार्य पद दिया। आप अंकलीकर जी के द्वितीय पट्टाधीश हैं। इन्होंने दक्षिण भारत और उत्तर भारत में यत्र तत्र सर्वत्र जैन धर्म की महान् प्रभावना की। वस्तुत: उनका उच्चकोटि का ज्ञान, ध्यान, तप और चारित्र आज भी अनुकरणीय है। आज के इस भौतिक और भोग के युग में आपकी दुर्धर आत्म-साधना मानव को आश्चर्यान्वित किये बिना नहीं रहती।
उन्होंने स्वयं यह ग्रन्थ अपने आप लिपिबद्ध किया। वे प्रतिदिन इसका पाठ करते थे। उन्होंने यह ग्रन्थ श्री फूलचन्द्र जी बनारस भेलूपुरा वालों को दिया और आदेश दिया कि निरन्तर भक्तिपूर्वक इसकी अर्चना करना। उन्होंने आज्ञा का पालन किया। ई. वर्ष 1999 में भेलूपुरा बनारस में विश्ववंद्यचारित्रचिन्तामणि सन्मार्ग दिवाकर वात्सल्य रत्नाकर सिद्धान्त चक्रवर्ती महातपोविभूति श्रमणराज 108 आचार्य श्री सन्मतिसागर जी महाराज का चातुर्मास हुआ। श्री फूलचन्द्र जी के वंशजों ने यह ग्रन्थ आचार्य श्री को भेंट किया। आप प. पू. 108 श्री अंकलीकर जी के तृतीय पट्टाधीश हैं। प, पु, आचार्य श्री ने इसकी फोटो स्टेट कॉपियाँ कराई और 20 वीं सदी की सर्वप्रथम गणिनी ज्ञानचिन्तामणि सिद्धान्त विशारद विदुषीरत्न सम्यग्ज्ञान शिरोमणि धर्म प्रभाविका 105 आर्यिकारत्न श्री विजयामती माताजी को भाषाटीका करने के लिये सौंप दिया, जो सिद्धहस्त प्रसिद्ध लेखिका हैं। उन्होंने अथक परिश्रम द्वारा इसकी भाषा टीका की है। चूंकि ग्रन्थ हस्तलिखित है और उसी की फोटोस्टेट कॉपी हैं। अत: उसको पूर्णरूपेण न समझ पाने के कारण पूर्ण सावधानी के बावजूद मुद्रण सम्बन्धी अशुद्धियाँ रह जाना नितान्त स्वाभाविक है तो विज्ञ पाठक जन सुधार कर पढ़ें और अशुद्धियों से समिति को अवगत कराने की अवश्य कृपा करें।
ग्रन्थ में अनेकान्तशैली का सर्वत्र प्रयोग किया गया है। जिनागम में वस्तु का स्वरूप सामान्य विशेषात्मक वर्णन किया गया है। सामान्य से द्रव्य और विशेष द्वारा पर्याय की प्रतीति होती है। प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। सर्वत्र अनेकान्त का एकछत्र राज्य है। एकान्तवादी अज्ञानतिमिर से आच्छादित हैं। यही कारण है कि एकान्तवादियों की तत्त्व व्यवस्था तर्क की कसौटी पर टिक नहीं पाती है। इसीलिये एकान्त दृष्टि हेय है।