________________
चतुर्विशति स्तोत्र सम्पूर्ण-असंख्यात प्रदेश निरावरण हो जाने से ज्ञान में चतुर्दिक व्यापी हो हो गया । मानों सब ओर से अपने स्वभाव से ग्रथित हो गया । आपका ज्ञान वैभव अनादि होकर आदि, मध्य अन्त से रहित एक विलक्षण ही शक्ति सम्पन्न है | क्योंकि एक समय मात्र में अपनी निर्मल-शुद्ध सम्पूर्ण चैतन्य का आश्रय प्राप्त करता है । चिद् परिणति में समय भेद नहीं । यह तो सर्वता, सर्वदा एकरूप ही रहने वाली है || ३ ॥
प्रत्येक तत्त्व अपने गुण द्रव्य, ब पर्यायों से स्वतः समन्वित होता है । इनमें प्रदेशभिन्नता नहीं होती | इन सबके एकीकरणभूत द्रव्य की सत्ता भी तद्रूप ही होती है । आत्मा एक द्रव्य है और केवलज्ञान उसके चिदूस्वभाव की शुद्ध गुण-या अर्थ पर्याय है । यहाँ आचार्य श्री इसी तथ्य का निरूपण करते हुए कहते हैं कि निश्चय से हे प्रभो! आपकी सत्ता विशेष महत्वपूर्ण है, सबल है, क्योंकि आपकी आत्मीय महिमा में आपको समाहित कर आपकी गरिमा बढ़ाती है । तथाऽपि आपकी ज्ञान की सीमा का उल्लंघन नहीं करती । क्योंकि ज्ञान और सत्ता एकात्मक है । वह कोई अन्य रूप पदार्थ नहीं है । अर्थात ज्ञान से अतिरिक्त सत्ता कुछ भी नहीं है | जो सत्ता है वही ज्ञान है और जो ज्ञान है वही सत्ता है । अभेद दृष्टि से एक रूप ही हैं ।। ४ ।।
समय-आत्मा शब्दागम से आचूलमूल भरित है । अर्थात् आत्मबोध से शब्दागम (द्रव्यश्रुत) का उद्गम हुआ है । अशेष संसार इसी के रसका रसिक हो रहा है । यह अकाट्य-अविरोधी वाक्यों की सत्ता द्वारा निर्मित है । शब्द रचना द्वारा यह अनेक विध होते हुए भी भाव रचना की अपेक्षा एकरूप और अकाट्य है । हे भगवन् ! आप तो अपने अखण्ड निर्मलज्ञान में सतत एक रूप से ही स्थित रह हैं । यथा नभस्थल अनेक तारावलियों से खचित सा दृष्टिगत होता है, परन्तु आकाश की स्वच्छता व अखण्डता को चिकृत नहीं कर सकता । इसी प्रकार शब्दागम की अपेक्षा आपकी दिव्यध्वनि रूप ज्ञानगरिमा अनेक शाखा-प्रशाखा रूप होकर भी दिव्य बोध