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चतुर्विशति स्तोत्र
है । तथा चहुँओर ज्ञान रस ही छिटक रहा है । जो एक ज्ञानसिन्धु की सुधारस तःगों ने सापने ही म.व में 4 हुमतगत हो रहा है । उसमें तीनों लोक ऐसा प्रतीत हो रहा है मानों तीन कालवर्ती सम्पूर्ण पदार्थों की उनकी अनन्त पर्यायों से निर्मित माला को समर्पित कर रहा है । अर्थात् सारा जगत् एकरूपता से प्रतिबिम्बित हो रहा है । हे प्रभो आपके इस रूप की महिमा अति अगम है । यही अवस्था मेरी भी हो | इस प्रकार से अविच्छिन्न ध्यान करने से स्वयं तदाकार प्राप्त कर लेता है ।। ९ ।।
जीवात्मा और कार्माण पुद्गल वर्गणाओं का अनादिकालीन मिश्रण चला आ रहा है । यह सम्बन्ध आपमें स्खलित हुआ है ! अतः परात्म दशा की सीमा से पृथक् होता हुआ भी भिन्नएकत्व प्राप्त वस्तुतत्त्व विशेष सम्पदा प्राप्त करता है । वह पर रूपता निकल गई । अब आपकी निजात्म पदार्थ शक्तियाँ प्रवेश पा रही हैं । इन्होंने आपके चैतन्य धाम में प्रविष्ट हो चिन्मय चेतना की परम पावन अवस्था बना दी । अब यहाँ मात्र ज्ञानशरीरी शुद्धात्मा है । निरञ्जन निर्विकार आपका अविनश्वर अमित रूप मात्र प्रकट है । अर्थात् भगवन्! आपका परम पावन रूप प्रत्यक्ष हो रहा है ।। १० ॥
__ प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने निज स्वभाव में ही शोभा पाता है । परस्पर कोई भी दो पदार्थों का मिश्रण होने पर मलिनदशा उत्पन्न होती है अर्थात् तीसरा ही रूप प्रकट होता है । यथा हल्दी और चूना मिश्रित हो अपनी-अपनी पीतमा व सफेदी त्याग तीसरा ही लालवर्ण धारण करते हुए अशोभन-अशुद्ध हो जाते हैं । भिन्न-भिन्न हुए शोभा पाते हैं । इसी प्रकार आत्मा और कर्म-राग-द्वेष-कषायादि से मलिन आत्मा दीपित नहीं होती | भिन्न-भिन्न हो अपने-अपने स्वभाव में निज वैभव से भरित हो चमत्कृत होती है । हे प्रभो ! इसीसे आप अपने पुरुषार्थ से समस्त अप्रयोजनीय परभावों का अभाव कर एक स्वधर्म से सम्पन्न हो । इस स्वाधीन अवस्था में अनेक