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चतुर्विंशतिस्तोत्र
समूह को अशेष नष्ट कर क्षपण कर अपनी सम्पूर्ण आत्मकला कलाप की उन्मीलित प्रकट करता हुआ अनन्तगुणी शुद्धि से विशुद्ध हो परम परमात्म तत्त्व को करता है इसीका से अपने अपने घातिया कर्मों का संहार किया है ।। १८ ।।
इस प्रकार उपायों से शान्त अनन्त तेज को उत्तेजित किया । अपने स्वाभाविक वीर्यगुण के उदय के द्वारा अन्तः तेज प्रकटित हुआ । इस भांति जिसका अन्तः करण अनन्त ज्ञानकिरणों से प्रकाशित हो अनन्त रूप को प्रकट किया। अब संकीर्ण अवस्था विस्तार को प्राप्त हो, विश्व को अपने में समाहित कर लिया । अभिप्राय यह है कि घातिया कर्मों के क्षय होने परसकलज्ञ अवस्था प्राप्त हुयी । अनन्त केवल ज्ञानरूपी रवि के उदय होन से सम्पूर्ण तीनों लोकों के पदार्थ अपनी अनन्त पर्यायों सहित युगपत झलकने लगे । मानों तीनों लोक संकुचित हो यहाँ एक साथ प्रतिबिम्बित हो उठे ॥ १९ ॥
घातिया कर्मों के नाश होने पर केवली - सर्वज्ञ भगवान के मात्र योग रह जाते हैं- सत्यमनोयोग, अनुभयमनोयोग, सत्यवचनयोग व अनुभव वचन योग, औदारिक काय योग और औदारिक मिश्र तथा कर्माण काय योग ये सात योग आगम में बताये हैं । इन योगों के भी नाश का उपाय करता है। योग के फल के जीतने का इच्छुक शेष बचे अघातिया कर्मों की धूलि को भी क्षपित करता है । आयु कर्म की स्थिति जिस समय वेदनीय नाम व गोत्र की स्थिति से कम रह जाती है तो केवली जिन अपने सहज स्वभाव से उन प्रदेशों को नष्ट कर आयुकर्म के समान करने के लिए समुद्घात करते हैं । मूलशरीर का त्याग किये बिना आत्मप्रदेशों का बाहर निकलना प्रसरित
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