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चतुर्विशति स्तोत्र
की प्रबलता से उद्भट मोहशत्रु को चारों ओर से परास्त करो । इतना निर्बल हो जाय कि पुनः आक्रमण ही न कर सके । अर्थात् आमूल नाश करने का प्रयास करो जिससे यह मोहरिपु असहाय हो भाग निकले यहाँ से अपूर्वकरण परिणामों को प्राप्त करता है || १२ ॥
अधः प्रवृत्त परिणामों के द्वारा गुणश्रेणी निर्जरा, गुण संक्रमण, स्थिति खण्डन और अनुभाग खण्डन पूर्व बद्ध कर्मों के विषय में हुआ करते हैं । इसके अनन्तर अपूर्वकरण रूप परिणामों से उपशम श्रेणी चढ़ने वाले के मोहनीय का उपशम और क्षपक श्रेणी आरोहक के मोह का क्षय होता है । ये परिणाम पूर्व परिणामों से अनन्तगुणे रूप से परिणमित होते हैं ! हे देव ये परिणाम विशिष्टरूप से अनवरत वीर्य शक्ति को उत्तेजित करते हैं । तथा आरोहक अपनी वीर्यशक्ति के सार से परमोत्तम क्षपण करण करने में समर्थ भूत क्षपणोपयोग को प्राप्त कर लेता है ॥ १३ ॥
कर्मों की बादरकृष्टि व सूक्ष्मकृष्टि होती है | इससे आभ्यन्तर आध्यात्म्य क्षेत्र में सहज स्वाभाविक चेतना-ज्ञान चेतना का प्रकाश होने लगता हैं । यत्र-तत्र तो प्रकट स्वानुभवरूप ज्योति दृष्टिगत होने लगती हैं । अर्थात् आत्मानुभूति उद्बुद्ध होती है ॥ १४ ।।
___ सूक्ष्मकृष्टि द्वारा सम्यक् प्रकारेण क्षीण होने पर शेष सूक्ष्मलोभ भी अपनी सच्चिक्कनता को त्यागता हुआ अकिंचित्कर हो जाता है । अर्थात् सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान को प्राप्त कर सूक्ष्मसाम्पराय संयम के आलम्बन से किंचिन् मात्र सूक्ष्म कषाय भाव को प्राप्त होता है । जिस प्रकार धोते-धोते कुसुमीवस्त्र में लालिमा अति सूक्ष्म रह जाती है उसी प्रकार यहाँ पर जीव सूक्ष्म राग-लोभ कषाय से युक्त होता है | लघु अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर क्षणा में उसे भी नष्ट कर कषायबन्ध से सर्वथा रहित हो जाता है । पनः क्या करता है, अग्रिम श्लोक देखें ।। १५ ।।
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