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चतुर्विंशति स्तोत्र
है । मैं तो यह मानता हूँ ( आचार्य श्री ) कि इस समय आनन्द से उत्साह द्विगुणित हो जाता है और ज्ञान के साथ वीर्यशक्ति विशेष प्रबल हो जाती है । अनेकों बार विषम घोर परीषहों का आक्रमण भी उसे ध्यान से च्युत करने में समर्थ नहीं होता । मोह उद्रेक प्राप्त भी हो तो भी उसका अन्तः करण आकुलित नहीं होता एकाग्रचित हो चैतन्य स्वभाव में स्थिर होने पर बाह्य उद्धत उपसर्ग परीषह लोष्ठ वतू पड़े रहते हैं कुछ भी विकारोंत्पन्न नहीं कर सकते | ध्यानाभ्यास करो ॥ ७ ॥
निःकाचितकर्म-जिस कर्म की उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण और अपकर्षण ये चारों ही अवस्था न हो सकें वह निकाचित कर्म कहलाता है इस प्रकार के महाकठोर और निद्यकर्म को हे आत्मन् ! तू ने स्वयं उपार्जित कर उसके तीव्र विपाक (फल) को भोगा है । अब आप ही स्वयं अकेले मेरुचत् धैर्य व बल को वृद्धिंगत करो और चित्त की एकाग्रता से ध्यान को स्थिर बनाओ । इस समय यदि तुम कातर कायर नहीं हुए तो उत्कृष्ट उपयोग से च्युत नहीं हो सकोगे । अस्तु, प्रगाढ़ रूप से अपने शुद्धोपयोग में अविचलित होकर बाह्य अचेतन गुरु कर्म जनित दुःखों को सह सकोगे । वाह्य क्षणिक घोर दुःखों की उपेक्षा कर अपने निज स्वरूप में अपने को नियुक्त करो ॥ ८ ॥
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उत्कृष्ट संयम के भार को वहन करने में खिन्न नहीं होना । यह संयम पंचमहाव्रत पाँच समिति, चारों कषाय, और मन, वचन, काय इन दण्डों का क्रमशः धारण, पालन, निग्रह और त्याग से सिद्ध होता है । तुम स्वयं अकेले ही दुर्जय कषाय शत्रुओं को जीतने में समर्थ हो । आप सदैव अपने ज्ञानरूपी शस्त्र को तीक्ष्ण तेज करते जाओ । श्रुतज्ञान रूपी छेनी से अशेष विषय - कषायों को छिन्न-भिन्न करो । भेद विज्ञान ही आत्मा और कर्म की सन्धि का भेदन कर निज स्वभाव को पृथक् कर सकता है । अतः निरन्तर श्रुत भावना का चिन्तन करो । यही एक मुक्ति का पथ है || ९ ||
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