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चतुर्विशति स्तोत्र
पाठ-३ प्रस्तुत श्लोक में जिनेन्द्रप्रभु के प्रति अनन्य भक्ति व समर्पण की भावना व्यक्त कर रहे हैं । हे भगवन्! आप तीर्थकर्ता हैं, यह सत्य है । परन्तु इस कार्य की सिद्धि का आपने कौन सा मार्ग स्वीकार किया । वह किस अद्भुत रस से आप्लावित मार्ग है, किस स्वाश्रित स्वरस से अभिषिक्त है । जिसके द्वारा अभिसिंचित हो अपनी जीवन कलिहा अनवरत रूप से, निराबाध विकासोन्मुख होती हुई पूर्ण प्रफुल्ल हो गई । हे प्रभो! हम उसी अद्भुत वैभव के पिपासु हैं, इसी तृषा के शमनार्थ चातक पक्षी की भाँति आपके इन्दुसम शीतल चरणों में आये हैं । हमें अन्य कुछ नहीं चाहिए मात्र वह प्रगतिशील बनाने वाले रस की एक मात्र बिन्दु चाहिए । प्रसन्न हो एक दिशा दर्शक किरण का प्रसाद कीजिये । अर्थात् मोह तिमिर नाशक सम्यक्त्व ज्योति का अनुग्रह कर प्रसाद दीजिये ॥ १ ॥
आपने अनादि कालीन मोहरूपी शत्रु की चक्रव्यूहाकार में रचित सेना को सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की सहज निजमहिमा में स्थित सुभटों द्वारा क्षणमात्र में परास्त कर दिया । तथा अपने स्वात्मस्वभाव आनन्द भवन में स्थित हुए । हे भगवन्! आपने चारों ओर से वेष्टित सावध - पापरूप योगों का परिहार किया तथा स्वयं अपने स्वस्थस्वभाव-निजानुभव में लीन हो गये । अर्थात् परम सामायिक को प्राप्त किया । नियतकाल या सर्वकाल के लिए सम्पूर्ण सावद्य-आत्मस्वरूप से भिन्नभूत क्रिया-कलापों का त्याग कर अपने आत्मस्वरूप का चिन्तन करना सामायिक है । आपने इस अवस्था को धारण किया । अतः आप परम सामायिक स्वरूप ही हैं ।। २ ।।
हे भगवन् ! आपके समीचीन, निराबाध चला आया सिद्धान्त द्रव्य और भाव का सापेक्ष सम्बन्ध स्वीकार करता है । क्योंकि द्रव्य कमों के उदयागत आने पर तदनुरूप भाव होते हैं और भावों के अनुसार यथायोग्य