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1 चतुविशति स्तोत्र प्रसिद्ध किया है । आचार्य श्री कहते हैं "हे जिन आपकी पर्द्धात आत्मा के प्रकट तेज-महिमा में किसी प्रकार की अनवस्था प्रदान नहीं करती न आप व्यवस्था देते हो अपितु नित्य ही उसे जीवन प्रदान करते हो । अर्थात् एकान्तरूप से नित्य या अनित्य कश्चन वस्तु का नाशक है. उभयधमात्मक ही स्वयं सिद्ध है, आपतो जो जैसा है उसे उसी रूप निरूपण करते हैं ।" जिससे वह चिदस्वरूप चुम्बित चिद् तत्त्व आपके सिद्धान्त में विधि-निषेध रूप में अनायास, सहज-स्वाभाविक सिद्ध होता है । परम आश्चर्य है कि एकरूप होकर भी द्विविधरूपता निराबाध ठहरती है यह अद्भुत माहात्म्य ही हैं | चिद् का उद्धव ही इस रूप में हैं और जिन देव आपका ज्ञान प्रकाश परम विशुद्ध होने से, राग द्वेष विहीन होने से अतीन्द्रिय तत्त्वों को भी यथाजान ही प्रकट करता हैं ॥ ५ ॥
___ आपके प्रतिपादित सिद्धान्त में विधि-निषेधात्मक तत्व वयासन्ध रूप ही स्वाभाविक अवस्था लिए स्पष्ट रूप से विस्तारित होता हुआ अपूर्व तेजोमय प्रकाशित होता है । अर्थात् स्व. चतुष्टय द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव की अपेक्षा विधि रूप (स्व अस्ति स्थित) और पर चतुष्टय की अपेक्षा निषेधम्प तत्त्व-स्वरूप लिए उदीयमान रहता है | वही कारण है कि निरन्तर सत्-असत् विरोधी होकर भी सहोत्पन्न सदृश वस्तु में स्थित रहकर उसे नाश होने में रक्षित रखते हैं । इस प्रकार के विकल्पजालों को सुलझाना कोई आश्चर्य नहीं है । परन्तु यह आपही के सिद्धान्त में है अन्यत्र नहीं ।। ६ ।।
पदार्थ-भाव स्व स्वाभाविक तेज से परिपूर्ण भरा प्रतीत होता है । वहीं पर पदार्थ के गुणों की अपेक्षा रिक्त-शून्य प्रतिभासित होता है । प्रत्येक पदार्थ भवन स्वरूप-परिणमन स्वरूप ही होता है । परन्तु शून्य होकर भी एकान्तम्य से अभावात्मक नहीं है । क्योंकि हे देव! आपके सिद्धान्त में निरन्वयना! वस्तु का नहीं होता । अनेकान्त सिद्धान्त में अभाव भी सदभाव रूप रहता