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चतुर्विंशति स्तोत्र
पाठ-२
भो आत्म तेज! तुम दर्शन चेतना व ज्ञान चेतना का शुद्ध स्वरूप हो. अपने अन्तरंगक्षेत्र के साथ बाह्य जगत में भी अनाकुलरूप से प्रकाशमान हो. अतीन्द्रिय होने से इन्द्रिय जन्यज्ञान की विषय नहीं होती । चैतन्य ज्योति की रश्मियों से खचाखच चूर्णसमान भरित हो. उसी से भाव्यमान होती हुई विश्वरूपअनेकरूपता लिए हो, अनन्तरूप वाह्य जगत के अनन्तगुण-पर्यायों सहित पदार्थ भी प्रकाशित हो रहे हैं । अतः वैश्यरूप भी हो, तथाऽपि अपने सहज स्वाभाविक उच्चतमतेजपुञ्ज एक चैतन्य स्वरूप को त्याग नहीं करते हो । ऐसे अपूर्व तेज द्वारा मैं स्पर्शित हो रहा हूँ | अभिप्राय यह है कि शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से निरीक्षण करने पर परमात्मा का जो लोकालोकव्यापी एक मात्र चैतन्य स्वभाव है वही मेरा भी है, मैं उसी रूप को प्राप्त करना चाहता हूँ । अतः उसी रूप से स्पर्शित होता हूँ ।। १ ।।
जो मनीषी, इस आत्मज्योति को पूर्ण विशद विस्तृत-निर्मल सम्यक दर्शन और ज्ञान मात्र, निर्विकल्प और सविकल्प स्वरूप संभावना करते हैं । अर्थात् दर्शन निर्विकल्प होता है और ज्ञान सविकल्प, इन्हें आगम में निराकार और साकार कहा है । इस प्रकार उभयरूपता लिए हुए भी एक रूप 'चेतना' मात्र ही है । यह मानों विश्व को व्याप्त कर अपने में समाहित कर रही हो ऐसा प्रतीत होती है । हे जिन जो इस प्रकार से उस पुराण पुरुष आत्मा को निरन्तर भाते हैं- चिन्तन करते हैं वे ही विश्व से भिन्न अपने में उदित रहने वाले आत्म स्वरूप में प्रवेश प्राप्त करते हैं । अभिप्राय यह है कि जो जिस पदार्थ का जिसरूप से एकाग्रचित्त हो, एक लयता को प्राप्त
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