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________________ चतुर्विशति स्तोत्र चैतन्य ज्योति भरित रत्नाकर (सागर) है । अपनी अनन्त शक्तियों को प्रकट कर अनेक गुणमणियों से मण्डित अद्भुत रूप-अनेकरूप प्रतिभासित होती है । अभिप्राय यह है कि आत्मद्रव्य द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा एक रूप ही है, परन्तु अनन्त पर्यायों को पीत होने से अनेक रूप भी है ॥२४|| हे प्रभो! यह ज्ञान रूपी अग्नि के द्वारा पुटपाक प्राप्त कर मेरा बाह्या भ्यन्तर रूप प्रारम्भिक उत्साहित संयम का स्वरूप निरन्तर चारों ओर से प्रकाशित हो दीप्तिमान हो रहा है । इसके प्रकाश प्रभाव से सम्पूर्णकषायमल किट्टिकालिमा नष्ट हो रही है तथा इस मलीच्छेदन से इसमें प्रच्छन्न हुआ मेरा निज स्वभाव रूप वैभव स्पष्ट प्रकट हो रहा है | इस समय शुद्ध स्वभाव से सम्यक् प्रकार स्वानुभूति मार्ग में विरवरी अनेकों स्वभाव भूत श्री-लक्ष्मी अनुभूत हो रही हैं । परोक्ष रूप से अनुभव में प्राप्त हो रही हैं । यहाँ अन्तिम श्लोक में गुरुवर्य आचार्य परमेष्ठी श्री महावीर कीर्ति जी महाराज, जिन्होंने अनादि आगमोक्त पद्धति से अपने परम आराध्यगुरु देव श्री मुनिकुञ्जर सम्राट् से आचार्य पद प्राप्त किया था, अपना जिन स्तवन का अनुभूत फल दर्शित कर रहे हैं । जिनगुण स्तवन निजानुभूति जाग्रत करने का समर्थ कारण है ॥२५|| इति ।। २३॥
SR No.090121
Book TitleChaturvinshati Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirkirti
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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