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चतुर्विशति स्तोत्र
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है जिनेश्वर! अशेष बाह्य पदार्थों का परिहार कर-त्यागकर स्वयं अपनी आत्मा के द्वारा आत्मा को तत्त्वरस के आस्वादन की भावना से अपनी ही आत्मा में रमण करती रहे | यदि बार-बार संकोच-विस्तार को मुझे प्राप्त होना नहीं पड़े इस स्थिति को चाहते हो तो मोहरूपी ग्रन्थी को सम्यक् प्रकार निर्मथन कर बलात् बाहिर फेंकते हुए अर्थात् क्षय करते हुए राग-द्वेष से सर्वथा रहित हो समदृष्टि बनो । इस प्रकार सम्पूर्ण मोहपरिग्रह ग्रन्थि का नाश कर स्वयं सर्वत्र पूर्णतः अपने ही आत्मतत्त्व स्वरूप का अवलोकन करो | उसे ही देखो । उसका ही निरीक्षण करते रहो ||१०।।
दृष्ट वस्तु भी भ्रम वशात् पुनः अदृष्टसम ही हो जाती है । यदि दृष्टि को वाह्य पदार्थों में निक्षिप्त कर दिया जाता है तो इस प्रकार यदि कोई भी अपने कर्मोपार्जित कर्म पुदगल के उदय से क्षुभित हो जाता है तो वह व्याकुल हुआ पर द्रव्य की ओर झांकने लगता है निज तत्त्व विलोकन से विमुख हो जाता है | आचार्य श्री ऐसे प्राणी की दुर्दशा को प्राप्त होने से उसे अज्ञानी पशु ही समझते हैं । अर्थात् वह पशु की कोटि में आ जाता है भ्रमित होने की अपेक्षा से । क्यों कि इस कारण से अपने ही कर्मों के उदयानुसार चलने वाले उत्कृष्ट पिष्ट-पेषण के उग्रवल के स्व स्वरूप से भ्रष्ट हो जाते हैं | इसलिए योगिजन विवेक पूर्वक बलवान कर्मों के वश न होकर अपने सहज शुद्ध स्वरूप की प्राप्त के हेतू रूप ज्ञान ध्यानादि कर्म काण्ड में ही नित्य उद्यम शील-प्रयत्न शील रहते हैं ।। हे प्रभो! योगियों को यही एक मात्र मार्ग आपने निरूपित किया है ||११||
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