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________________ चतुर्विंशति स्तोत्र भव्यात्मा अपने अद्भुत स्वतत्व का आश्रय प्राप्तकर सम्यक् प्रकार उस आत्म तेज के अन्त का अवलोकन और अनुभवन करते हैं । अर्थात् अनन्त दर्शन व अनंतज्ञान के अधिष्ठाता हो जाते हैं || ६|| 'चिद्' यह गुण मुख्य है । जिस समय व्यक्ति विशेष अर्थात् अन्य धर्मों युक्त की दृष्टि से विचार करते हैं तो सर्व ओर परिणमन करते हुए विशेष हो जाते हैं तो भी सामान्य से सर्वथाभिन्न नहीं है क्यों कि वहौं भी सामान्य चेतना प्राप्त ही रहती है ! फशन काल में गृह गौण हो जाती है । इसी प्रकार वाह्याभ्यंतर संयम से परिपूर्ण साधक चेतना-ज्ञान ज्योति को जाग्रत करते हुए, निष्प्रमाद होकर जो सामान्य-विशेषात्मक निज तत्त्व उसी को करके (प्रकट कर) करते हैं और जानते हैं । अर्थात् आत्मान्वेषी महापुरुष उसे ही प्रकट कर-प्रत्यक्ष करते हैं, और ज्ञात करते हैं | आपने यही तत्व स्वरूप निरूपण किया है || ७ || सामान्य विशेषात्मक धर्मों से युक्त ही होता है । आत्मा भी एक द्रव्य है । अतः उसमें भी उभय धर्म निहित है । आत्मा का स्वभाव या लक्षण जब हम "चित्स्वरूप" ऐसा करते हैं तो आत्मा एक 'चित्' चैतन्य स्वभावी प्रकट होती है | यह लक्षण सामान्य धर्म का निरूपण करता है अर्थात् आत्मा अनन्त धर्मात्मक है तो भी एक धर्म को लिये कहा जा रहा है | यह अन्य शक्तियों का अभाव नहीं है, अपितु वे सर्व गौण रूप से विद्यमान है | अभिन्न दृष्टि से अर्थात् अभेद दृष्टि की अपेक्षा तत्त्व विवेचन करने पर भिन्न-भिन्न-भेदरूप तत्त्व चारों ओर से हरप्रकार से कुछ गौणरूप से निजतत्त्व में ही विश्रन्ति पाते हैं । अर्थात् समस्त भेद उसी सामान्यनिविवक्षा में उसी सामान्य में-अभेद दृष्टि में विलीन हो जाते हैं । इस प्रकार हे प्रभो पूर्ण
SR No.090121
Book TitleChaturvinshati Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirkirti
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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