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________________ चतुर्विनति स्तोत्र पाठ-२५ हे स्वामिन्! आप जिस किसी प्रकार आत्मावलोकन की एक मात्र कला को उद्घाटित करते हैं, वह मेरे गहन कर्म पटलों के आश्रवों द्वारा वेग के साथ आच्छादित हो जाती है : पाहायर प्रकार पुष्ट कर्म पटली से पुनः पुनः प्रमित हो क्षीण प्राय हो जाता है | अतः भगवन्! वह आत्म ज्योति सम्पूर्ण कर्म पटल को पूर्ण पृथक कर जाग्रत हो यही प्रार्थना करता हूँ ||१|| जिसके अन्तः स्थल में यह अन्तर्ज्योति को आवृत्त करने वाले राग-द्वेषादि तनिक भी जाग्रत रहते हैं, उसके यह आत्मीय प्रकाश स्पष्टरूप से कभी भी आभासित नहीं होते हैं | उस गरिमा के आवारक को प्रतिदिन निरीक्षण करता रहता है और उन क्रियाडम्बरों को आपके सिद्धान्त से नष्ट करने का प्रयास करने पर निश्चय ही वह आम ज्योति भी क्रमशः स्पष्ट हो जाती है । अर्थात् आत्म स्वभाव के प्रकाशित हेतुओं के हो आलम्बन क्रम से निज स्वरूप प्रतिभासित होता है | आपके जैसा अमर साम्यामृत उपलब्ध हो सकता है ।।२।। पूर्व अवस्था में जिसने संयम सञ्चित किया है उसके कर्मरूप धूलि (धूल) शीघ्र ही नष्ट हो जाती है । यही नहीं वह विनष्ट होती हुयी कर्म कालिमा स्वयं आदर से उद्दाम परिपूर्ण संयम से हृदय को स्वयं भर कर ही जाती है । अभिप्राय यह है कि संयम धारण व पालन से क्रमशः कर्ममल निर्जरित होता है और उत्कृष्ट यथाख्यात संयम उत्पन्न-जाग्रत होता जाता है । इस प्रकार जो उद्यम शील भव्यात्मा छल-छिद्र रूप कपट ग्रन्थि को शिथिल
SR No.090121
Book TitleChaturvinshati Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirkirti
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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