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चतुर्विशति स्तोत्र
अनन्त जगतत्रय आपके उपयोग में आ रहा है, परन्तु इससे आपको कुछ प्रयोजन ही नहीं है । अतः कार्य करना ही नहीं है । क्योंकि अब शुद्ध एक अविचल उपयोग का महान प्रकाश ही आपका स्वभाव हो गया है । यही उपयोग ग्राह्य आकार नानापने से आपमें खचित हुआ आत्मशरीर का साक्षात् ज्ञानाकार मात्र ही है जो अपने ही में निष्ठ अपना ही साक्षात्कार करता है || २१ ॥
अनन्त ज्ञान व अनन्त दर्शन की स्थिति को स्थायी, अचल स्वरूप में स्थिर रखने वाला अनन्त वीर्य अपने उद्दाम रूप से प्रकट हुआ है । यह अपने व्यापार को विस्तृत कर आपकी दृशि शक्ति को स्फालित-विस्तृत करता हुआ निर्द्वन्द क्रीडा कर रहा है । इससे अनन्त आनन्द रस में पुष्ट हुयी उत्ताल तरंगे ही आप में क्रीडा करती हैं । तथा बाह्य अनन्त पदार्थों व भावी-विभावों विस्तृत, विशाल सेना को परास्त कर आकुलता के मर्म भेदी कष्टों से जीव को निरंतर मुक्त करती हैं । अर्थात् रागद्वेष की उत्पत्ति के कारण पर भावों का अभाव कर निराकुल सुख शान्ति में जीव को स्थित करती हैं | क्योंकि पदार्थ ही रागद्वेषोत्पादक हैं, जो आकुलता उत्पन्न कर स्व-स्वभाव भूत सुखानन्द का घात करते हैं || कारणाभाव से कार्याभाव भी सुनिश्चित होता ही है |॥ २२ ॥
अनन्त दर्शन ज्ञान के एकाकार रूप महान उपयोग का विशाल तेज है । इसमें व्याप्त होने पर अति तीक्ष्णता को धारण करता हुआ हे ईश! आपका प्रभाव व ज्ञानास्त्र अतिवेग के साथ अत्यन्त उद्यमशील हो गया है । विश्व को अपने प्रभाव में व्याप्त कर अद्भुत रस की प्रस्तावनास्लप आडम्बर को अतिनिरुत्साह कर दिया । अर्थात् क्षणिक सांसारिक इन्द्रिय जन्य सुखाभास को आपने प्रगाढ़ अनन्त वीर्य द्वारा समुच्छिन्न कर वीर्य गरिमा को ही पुष्ट किया । संसारोत्पादक कर्म शक्ति को पूर्णतः सम्मूर्छित कर दिया ।। २३ ।।
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