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चतुर्विंशति स्तोत्र
से जगत् आपके बोध स्वभाव में अर्पित हुए प्रतीत होते हैं । यह व्यवस्था द्रव्यार्थिन नय और पर्यायार्थिक नय अक्रम क्रम रूप से स्पष्ट सिद्ध करते हैं ।। १३ ।।
असीम, अनन्त दर्शन, ज्ञान शक्तियाँ आत्मा से आत्मा के द्वारा आत्मा अनन्त-अवधि रूप से 'बि' आणि से रूप से सुरासान हो रही हैं. तथाऽपि स्व प्रदेश रूप लक्ष्मी में जब तक हैं, सीमित ही है । हे देव ! यदा-कदा यह परिणमित हुयी शोभती है । आपका उपयोग इसी कारण आत्मरूप से प्रतिभासित होता है | किन्तु इस प्रकार होकर भी अपने आत्म प्रदेशों में व्याप्त अनन्तोऽपि सीमित रूप भी है । क्यों कि अपने केवल ज्ञान में क्रीडा करती हैं | अक्षय रूप विश्व व्यापी प्रताप चैतन्य उल्लासों से स्वयं सान्तपने को भी द्योतित करती शोभा पाती हैं । संसार के पदार्थ क्रमिकरूप से परिणमन करते हुए इस चैतन्योपयोग में प्रतिबिम्बित होती रहती है || १४ ||
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हे प्रभो! आपकी चिचन्द्रिका सागर में अशेष तीनों लोक सर्व ओर से व्याप्त हो रहे हैं, निमग्न हो रहे हैं । अत्यन्त असीम काल पर्यन्त समाये रहने पर भी यह स्वयं तो आप ही में निमग्न रहती हैं। आपमें अति गहराई में समाई हुई हैं । तथाऽपि आपकी पुण्य महिमा अलौकिक है जिसमें लोक एकान्तिकरूप से प्रतिभासरूप से समाया रहकर भी यह माहात्म्य आपमें ही प्रविष्ट हुआ प्रकाशपुञ्जरूप प्रतिभासित होता है | इस प्रकार हे प्रभो! आपकी महिमा माला निश्चल, अचिन्त्य प्रायः स्व स्वभावोद्भूत ही है । चैतन्य उर्मियों अपने ही चित् सागर में लीन रहती हैं । यह आपका प्रभाव महान अचिन्त्य है ।। १५ ।।
अन्तःकरण में कलीरूप को प्राप्त होती हुयी भी केवलज्ञान रूप घनाकार- ठोस हुयी सी प्रतिभासित होती है | क्रीडा करती हुई भी निश्चल
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