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चतुर्विशति स्तोत्र वैभव है, महिमा हैं | जड़ पदार्थ को कितना ही संस्कारित किया जाय परन्तु इसमें कुछ भी चमत्कृत नहीं होता परन्तु चिद् चमत्कार तो बिना ही संस्कार किये स्वयं स्वभाव से प्रकाशित रहता है और अन्य को प्रकाशित करता है । स्व-पर दर्शी होकर भी निराकुल रहता है । एक साथ लोकालोक को पूर्ण धोतित करता हुआ स्वयं निष्कलंक निर्मल बना रहता है । पर पदार्थों को दर्शाता हुआ उनसे मलिन नहीं होता-मिश्रित नहीं होता || १२ ।।
संसारावस्था में विकारी अनन्त पर्यायों के समूह द्वारा दलन करने बालों से दलित, च्छेतृन् से छिन्न-भिन्न, मेदों से विविध, तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्रों से कटा-पिटा इस प्रकार अनिवरित शक्तियों द्वारा उनके विक्रम-शौयं से अभिभूत हो मलिन-कलुषित हुआ । परन्तु यह सब जरूप क्रियायें जड़रूप पुद्गल में होती रहीं । तुम तो अपने निष्प्रमाद दशा में ही थे । अर्थात् चेतनस्वभावी ही बने रहे || १३ ।।
अनेकों परद्रव्य निमित्तिक पर्यायों ने एक साथ मिलकर भी आत्मा का कुछ बिगाड़ नहीं किया । परन्तु आपकी एक मात्र चैतन्य चिनगारी रूप अंगारे ने चारों ओर विश्वव्यापी विराट रूप द्वारा, उद्दाम, निरंकुशरूप धारण कर तीनों लोकों को राख-भस्म बना दिया । स्वयं आतिशायी विशालरूप में निरंतर विशद रूप में विशेष शक्तिशाली ही रही । अनन्तज्ञान के समक्ष जगत क्या करता है उसे तो यह अविषय है । हे भगवन् ! इस प्रकार आप ही एक मात्र शोभित होते हैं स्व स्वरूप लीन होने से || १४ ॥
नभोमण्डल में उदित रवि किरणें प्रतिदिशा द्वारा धारण की जाती हैं । अर्थात् प्रत्येक दिशा प्रकाशित होती है, परन्तु यह मार्तण्ड का ज्योतिपुञ्ज दिशारूप नहीं हो जाता । दिशाएँ दिशारूप ही हैं और सूर्यमण्डल अपने ही रूप | इसी प्रकार हे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी आपकी
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