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चतुर्विंशति स्तोत्र
तो आप रूप ही प्रवर्तता है, विश्व तो ज्ञेयरूप से पृथक् ही रहकर आपकी निर्मलता में झलकता है || २ ||
निश्चय नय से न तो विश्व आप में प्रविष्ट होत हैं और न आपका ज्ञानघन स्वभाव ही बाहर आता है । किन्तु दोनों ही अपने-अपने में ही रहते हैं । बारम्बार परिवर्तित होती हुयी पर्यायों के परिणमन से उत्कृष्ट रूप प्राप्त होते हैं | फिर निश्चय से अखिल द्रव्य अपने-अपने स्व स्वभाव रस से परिपूर्ण रहते हैं तथा अपने ही स्वभाव में नियत होते हैं 1 तो भी निश्चय से शुद्ध ज्ञान में कोई अलौकिक स्वाभाविक योग्यता है सम्पूर्ण विश्व को अपने में अवकाश देने का यही नहीं सर्वज्ञ के ज्ञान में सम्पूर्ण जगत गडूष के सदृश है । ऐसे ही अनन्त जगत भी उसमें समाहित हो सकते हैं, इतनी सामर्थ्य है इसमें । परन्तु तो भी स्वयं अलिप्त निज स्वभावमग्न ही रहता है ।। ३ ।।
__ हे जिन! चारों ओर विशेष रूप से प्रभावी ज्ञान निर्विभागी होकर भी व्याप रहा है । हे जिन! आप अपने एक ज्ञानधन स्वरूप से भेद-खण्ड रूप नहीं होते हो | नाना विभाग किये जाने पर भी प्रमा-ज्ञान व्यापी हुआ ज्ञान ही रूप को धारण करता है । इस प्रकार विविधाओं से भरित विश्व आपका ज्ञेय बनता है परन्तु आपका ज्ञानधन लक्ष्मी खण्डित नहीं होती है । यह अनन्त ज्ञान श्री खण्ड-खण्टु रूप पदार्थों को ज्ञेयाकार से ही ज्ञात करती है । खण्ड-खण्ड रूप स्वरूप विश्व को रक्षित करने वाली ज्ञेयों से भिन्न रूप होकर ही अपने सहज स्वभाव से स्फुरायमान रहती है । क्योंकि यह नियम है कि अन्य द्रव्य अन्यद्रव्य रूप परिणमन नहीं करता, अपितु अपने-अपने निजस्वभावभरित ही रहते हैं ।। ४ ।।
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