________________
चतुर्विंशति स्तोत्र ही पूर्णज्ञान है इसमें लोकालोक व्याप्त होता है, आत्मा फलकर संसार व्यापक नहीं होती वह तो असंख्यात प्रदेशी ही है, अपनी ज्ञानकिरणों रूपी शाखाओं से सर्वव्यापी है । इस प्रकार की अनुपम घटना घटित करने वाले भगवान श्री मुनिसुव्रतस्वामी ही यथा नाम तथा गुण हैं ।। २० ॥
अर्थ-आप विश्वव्यापी हैं, किन्तु उतने मात्र ही नहीं हैं क्योंकि लोकालोकरूप विश्व है वह आपके सम्यग्ज्ञान की पूर्ण निर्मलता में आकीर्ण है परन्तु इतने ही और भी अनन्तलोक हों तो ये भी इसमें समाहित हो सकते हैं । परन्तु आश्चर्य तो यह है कि तीनभुवन में व्यापकर भी आप अपने में ही सिमटे रहते हैं, निजस्वरूप से कभी भी चलायमान नहीं होते । इस प्रकार सम्पूर्ण लोक आपके ज्ञान का एकदेश भी नहीं है । है नमि जिन ! आपके ज्ञान रूपी अमृत रस में तीनों लोक समाहित है-डूब रहा है । अभिप्राय यह कि आपके सिद्धान्त का अनुचर भव्यप्राणी सदैव इसी प्रकार के अगाध अमृतरूप हो सकता है यह आपने अद्भुत कला दर्शित की है ! जो आपके समक्ष नम्र होगा. वह संसार को नम्रीभूत करने में सक्षम हो सकेगा । अतः आपका नमि नाम वास्तविक है || २१ ।।
जो बंधनबद्ध होता है वही बंधन मुक्त होता है यह तो प्रतिभासित होता है । जो मुक्त हो गया वह पुनः बंधनबद्ध हो यह प्रतिभाषित नहीं होता । अर्थात् ईश्वर अवतार नहीं होता । बद्ध ही सदा निर्बद्ध होता है यही भव्य की महिमा है | जो एक बार मुक्त हो गया वह पराश्रित नहीं होता, वह तो सदा मोक्षावस्था में ही रहता है । भगवान नेमिश्वर प्रभु का सिद्धान्त तो बताता है मोक्ष में भी न बद्धो न मुक्तो, यह तो वह अवस्था है जहाँ कोई विकल्प ही नहीं है, वहाँ तो चिद् मात्र-चिन्मात्र ही है । इस प्रकार सम्पूर्ण अरिष्टों से रहित-निराकुल तत्त्व प्रतिपादक अरिष्टनेमि सार्थक नाम वाले बालब्रह्मचारी नेमिनाथ भगवान हैं ।। २२ ।।
__ आपके ज्ञानालोक में जो कुछ भी प्रकाशित होता है वह विभ्रमरहित प्रमाणित होता है । अथवा यों कहें जो जितने जैसे प्रमेय हैं वे उसी रूप
३॥