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चतुर्विशति स्तोत्र
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का त्याग नहीं करते, अपितु तन्मय हुये ही प्रतिलक्षित होते हैं । कभी भी अपने इस सम्बन्ध का त्याग नहीं करते । अर्थात् गुण-गुणी या द्रव्य पर्याव पृथक्-पृथक् कदाऽपि नहीं रह सकते, एकाश्रयी होने से || १८ ।।
हे प्रभो ! आपके मत में गुण-गुणी ये दोनों ही तन्मय होकर भी अपने भाव (स्वभाव) रूप ही झलकते हैं | जिस प्रकार विशेषण परिलक्षित होते हैं, उसी प्रकार विशेष्य भी दृष्टिगत होते हैं । यदि इनमें सर्वथा भिन्न होने पर एक के अभाव में दूसरे का अभाव नहीं होगा । परन्तु देखा जाता है कि विशेष्य के साथ ही विशेषों का भी अभाव होता है । अतः आप ही का सिद्धान्त प्रमाणित ठहरता है । निस्सन्देह यही यथार्थ है || १९ ।।
पदार्थ आश्रय विहीन नहीं अपना अस्तित्व शोभित करता है जो कुछ जहाँ जब उसका आश्रय अन्विष्ट होता है तो वह भाववान् ही प्रत्यक्ष होता है । इसी प्रकार अभाव भी निराश्रयी नहीं हो सकता क्योंकि जिस क्षण अभावरूपता स्फुरायमान होती है उसी क्षण अभाववान भी आ उपस्थित होता है । क्योंकि वह उसी के आश्रय से टिका था |॥ २० ।।
वे स्वभाव व स्वभावी दोनों एक साथ ही प्राप्त होते हैं । तथा उसी प्रकार अप्राप्त भी । हे देव ! आपके सिद्धान्त में वस्तु निर्विरोध रूप से गलित होती है, अर्थात् सद्भावपूर्वक अभाव को प्राप्त करती है । क्योंकि व्यय उत्पाद पूर्वक होता है । पर्यायों का यही क्रम है । हे देव ! आपने बताया जिस समय आत्मा (सद्धाव) अपने स्व स्वभाव से उदय को प्राप्त होता है उसी समय परभावापेक्षा अभावरूप भी । अर्थात् एक आकार (पर्याय) नष्ट होते ही दूसरी उम्मेदवार उदित होने को तैयार रहती है ।। २१ ।।
सर्वथा वस्तु (सत्) अभाव रूप नहीं है । क्योंकि नयों की विवक्षा से स्वयं ही पदार्थ अपने आश्रय को प्राप्त करता है । जिस प्रकार सामान्यापेक्षा पूर्णरूप से पदार्थ प्रतिभासित होता है उसी प्रकार अपने विशेषों (पर्यायों)
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