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चतुर्विशति स्तोत्र रहेंगी । तथाऽपि सत् के अभाव में असत् रूप पर्यायें भी तो सत् रूप से प्रकाशित होने से वे ही सत् रूप दृष्टिगत होगी । इस प्रकार तो एकान्त ही सिद्ध होगा जो अनिष्टकारी है || ११ ॥
विशेषों (पर्यायों) के स्थायी होने पर सामान्य का प्रतिभास नहीं होगा । परन्तु प्रतिभासित होता ही है । इसी कारण आपका सिद्धान्त उभयरुपता युक्त पदार्थ स्वीकार करता है ! वस्तु विवेचना करने पर वह ऐकान्तिक रूप से सामान्य विशेषता धारण करनेवाली प्रतीत नहीं होती है । परन्तु ऊहा-पोह का विषय होने से सत् स्वरूप तो है ही । फिर क्या है ? सामान्य विशेषात्मक ही तत्त्व की सिद्धि हो जाती है || १२ ।।
जो कुछ वस्तु में समक्ष समानता लिए अनुभव में आता है । अर्थात् यह वही है, इस प्रकार की प्रतीति का कारण हो वही सामान्य है ! अन्य कुछ वाह्य वस्तु नहीं । इस प्रकार हे देव ! समानता द्योतक जितने विशेष हैं उतने ही प्रमाण में सामान्य भी होता है । क्योंकि शक्ति, विशेष, गुण, लक्षण, धर्म, रूप, स्वभाव, प्रकृति, शील एवं आकृति ये सब एकार्थवाची हैं | पं. ध्या. का. ४८ || में स्पष्ट किया गया है | चूंकि स्वभाव-स्वभावी में सर्वथा भेद नहीं होता, एकाश्रय होने से ।। १३ ।।
जिस प्रकार पदार्थ में एकत्व रहता है, उसी प्रकार समानता भी निहित रहती है । उसी प्रकार विशेष भी रहते हैं, जिनसे वस्तु में वैशिष्ट्य प्रकट होता है | इस प्रकार स्व विकार जिस प्रकार प्रकट होता है, उसी प्रकार पर विकार भी । अतः आपके सिद्धान्त में सामान्य और विशेष गुणों में सर्वथा भेद प्रतीत नहीं होता | गुण गुणी का एकान्त भिन्नत्व नहीं है क्यों कि दोनों एकाश्रयी होते हैं || १४ ।।
वस्तु एक ही समय में वस्तुपने को प्राप्त होती है | जिस समय वस्तु है उसी काल उसका लक्षणरूप स्वभाव भी लक्षित होता है । गुण गुणी में