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चतुर्विशति स्तोत्र
से सबको सुख शान्ति प्रदान करने वाला है । अस्तु आप यथार्थ में "शान्तिनाथ" है । शान्ति के अधिनायक हैं || १६ ॥
हे कुन्युजिन! आपने उपदिष्ट किया है कि तत्त्व उपाधि के निमित्त से स्थायी होकर भी क्षण-क्षण में नाश को प्राप्त होता है । अर्थात् पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा तत्त्व क्षणध्वंशी है इस कारण भेद रूपता-चित्रता स्पष्ट दिखायी पड़ती है । परन्तु यह भेद अभेद से सर्वथा शून्य नहीं है । अपितु अभेद में ही भेद हो रहे हैं । राणा गान प्रवन से आहत होकर विघटित होते हुए दृष्टिगत होते हैं । विज्ञानरूप धातु-तत्त्व भी शायोपशमिक अवस्था में ज्ञानावरण कर्म के निमित्त से खण्डरूप होकर हानि-वृद्धि को प्राप्त होता है, परन्तु सम्पूर्ण आवरण के नाश होने पर वह अपने परमार्थ रूप आत्मा को ज्ञानघनस्वरूपता को प्राप्त कर एकरूप ही प्रतिभासित होता है | यही नहीं पुनः "काले कल्पशतेऽपि" अनन्त काल होने पर भी विक्रय-स्वस्वभावच्युत नहीं होता । जिस प्रकार घनों की चोट खाकर भी लौह धातु अपने स्वभाव का परित्याग नहीं करता उसी प्रकार अनन्तों अनन्तगुणधर्म वाले पदार्थ भी आपके शुद्ध ज्ञान स्वभाव में प्रति विम्बित होकर भी उसे मलिन नहीं करते । इस प्रकार का तत्त्वज्ञान कराने वाले भगवान् आप सार्थक नाम वाले हैं || १७ ।।
अर्थ :- एकरूपता वस्तु भी अनेकरूए प्रतिभासित होती है तथा अनेकरूप भी एक रूप प्रतिभासित होती है । परन्तु ये दोनों धर्म सर्वथा निरपेक्ष होकर पृथक् नहीं हैं अपितु सापेक्षता लिए वस्तु को उभय धर्मात्मक सिद्ध करते हैं । इस तथ्य को हे अरजिन ! आप ही ने सिद्ध किया है-आपके निर्विकारी-निर्मल केवलज्ञान में बस्तु स्वरूप भेदाभेदात्मक रूप ही झलका हैं । गुण-द्रव्य-पर्यायों की इस विचित्र विरोधात्मक दृष्टि को अविरोधात्मक ज्ञात करना सर्वज्ञ को भी संभव है । सूक्ष्मरूप नाना पर्यायों का परिज्ञान