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चतुर्विंशति स्तोत्र
इस प्रकार एक ही विशेष्य अपने अनेक विशेषणों से युक्त हो अनेक रूपता को प्राप्त होता है ! परन्तु यह उत्पाद अपने विनाश व ध्रुवत्व से सर्वथा भिन्न हो प्रतिभासित नहीं होती, अपितु अभिन्न धारा से निरन्तर प्रवाहित होती हुयी परिलक्षित होती हैं । हे भगवन् ! यह आपका सिद्धान्त अबाधित प्रामाणिक सिद्ध है ।। ९ ।।
अपने चैतन्य विशेषण से परिपूर्ण भरी यह चैतन्यधारा कभी भी शुष्क नहीं होती, अर्थात् स्वभाव का परित्याग नहीं करती । यह ज्ञानरूप चित् विशेषण की धारा, अविरल रूप से चलती ही रहती है, कभी भी क्षय नहीं होती है । इसका प्रवाह अजम्न चलता रहता है ।। १० ।।
आत्मा के चैतन्य विशेषण में जो भेद होते है वह पर के निमित्त से होते हैं, स्वतः स्वभाव से नहीं होते । अपने स्वभाव से तो सदैव ही एक स्वभाव-अद्वयभाव से ही प्रसिद्ध रहती है | कारण यह अपने असाधारण स्वरूप से अवस्थित रहती है । स्वभाव का स्वभावी से पृथक्करण नहीं हो सकता है अन्यथा स्वभाव व स्वभाववान् अभावरूप या अनवस्थित हो जायेंगे । जो असंभव है || ११ ॥
आपके सिद्धान्त में चैतन्यभाव अविभागी एकरूप से अव्यय स्वरूप है । अंश रहित एक है, अखण्ड है । क्योंकि चैतन्य तत्व एक अविभागी रूप ही अनुभव में आता है । अखण्ड-एकरूप ही अनुभव भावना की अनुभूति रूप प्रतिभासित होता है, अन्य भाव से नहीं ।। १२ ।।
___ सत्ता-अस्तित्व स्वभाव समस्त क्रिया कारकों का विलोप कर एक मात्र अपने स्वभाव रूप ही अनुभूत होता है | निरंकुश एक रूपता धारण किये हुए एक अद्वितीय अवस्था प्राप्त होती है । उस दशा में न क्रिया परिलक्षित होती है न कारक समूह ही । क्यों एक अखण्ड रूप में भेद नहीं पाया जा सकता है || १३ ।।
आप
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