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चतुर्विशति स्तोत्र
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अतएध ग्रह आत्मा तत्त्व अपन उपार्जित कम की परमार्थपने से धारण करता है | क्योंकि दोनों (पूर्वार्जित कर्म और आत्मभावों) के द्वारा ही उपार्जित किये जाते हैं | परमशुद्धभाव अभेदरूप कारकचक्र अपेक्षा में आप में लीन होते हैं । क्यों कि शुद्धभाव में ही अभेदरूप से कारकचक्र निहित रहता है । अर्थात् आत्मा ही आत्मा को आत्मा के द्वारा, आत्म के लिए, आत्मा से, आत्मा में कर्मों का संचय च विनाश करता है ।। १६ ॥
कारकचक्रीय स्वभाव को प्राप्त हो होकर तद्रूप से कार्यरूप कर्मों का स्वयं आत्म परिणाम हैं । इस प्रकार तुम ही कारणरूपता को प्राप्त होते हो । अर्थात् आत्मा ही कारण है, कर्मरूप कार्य की । क्योंकि शुद्धात्मा का शुद्धभाव भी इसी प्रकार कारण-कार्य रूपता को प्राप्त होता है । यद्यपि कारण-कार्य भाव उसका विषय हैं नहीं । अर्थात् शुनिश्चय नय से शुद्धात्मा का कर्मों के साथ कारण-कार्यभाव नहीं है । परन्तु व्यवहार नयापेक्षा अशुद्धात्मा का कारण-कार्य भाव सुप्रसिद्ध है । यही अपेक्षा वाद सिद्धान्त का विषय है || १७ ।।
अपने ही शुद्ध ज्ञान के निमित्त से उत्पन्न शुद्ध ज्ञान चेतना को प्राप्त हुआ आपका आत्मतत्त्व आपमें ही तद्रूपता से उत्तरोत्तर विकासोन्मुख होता हुआ परम शुद्धावस्था प्राप्त करता हैं । यहाँ पर वाह्य निमित्त हेतु नहीं होते, अपितु निश्चय से निजभावोत्थ परिणाम ही निमित्त रहते हैं । क्योंकि ज्ञानस्वभावभूत आत्मा अपने ही ज्ञानभाव से ज्ञातृत्वपने से विस्तार को प्राप्त होती हैं । विशेषभावों को गौण कर सामान्य से सर्वव्यापी ज्ञानधन रूप ही आपका शुद्धात्म तत्त्व प्रकट विराट रूप में प्रकाशित होता है ।। १८ ॥
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